Thursday, April 18, 2024
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प्रसंग- जो बात नहीं कहनी

SI News Today

हम जो हैं, भलीभांति जानते हैं। अपने बारे में सच्ची बात सबसे अधिक हम ही जानते हैं। मगर हम अपने बारे में हमेशा यही चाहते हैं कि हम जो हैं, हमारी जो सच्चाई है, जिस सच्चाई को हम जानते हैं, दूसरे न जान पाएं। मुझे लगता है, जीवन के आंतरिक धरातल पर यह दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य है, जो हमें बिल्कुल आश्चर्य जैसा नहीं लगता। ऐसा क्यों है?
मुझे लगता है मनुष्य जाति वास्तविकता में बहुत कम, सपने में अधिक जीती है। हम जो हैं, उसे स्वीकार नहीं करते। हम जो होना चाहते हैं, वही अधिक जीते हैं। यह अस्वाभाविक नहीं है, मगर विस्मयजनक जरूर है। जो है, वह सच्चाई है। जो चाहिए, वह सपना है। जीवन सिर्फ सच्चाई नहीं है। जीवन सिर्फ सपना नहीं है। जीवन में सच्चाई और सपने के संगम रोज-रोज, क्षण-प्रतिक्षण होते रहते हैं। जीवन गतिशील है। गति लक्ष्य के प्रति होती है। जो है, उसमें गति की कोई संभावना नहीं है। आकर्षण, जो चाहिए, उसके प्रति है। वही गति पैदा करता है। जीवन केवल यथार्थ भी नहीं है। जीवन केवल आदर्श भी नहीं है। जीवन यथार्थ और आदर्श का अंत: संघर्ष है। जो मौजूद है, सिर्फ वही सच नहीं है। सच की शाखाएं जो नहीं है, उसमें भी फैली हुई हैं। जीवन में रस हमेशा मनुष्य को संभावनाओं में अधिक लुभाता रहता है।

हम अगर ध्यान से देखें तो पाएंगे कि हमारे जन-जीवन का अधिकांश जो है, उसे नकारने और उसे छिपाने में लगा हुआ है। यह बड़ी बेधक विडंबना है। गरीब से गरीब आदमी अपने को गरीब मानना नहीं चाहता। बेईमान से बेईमान आदमी अपनी पहचान बेईमान के तौर पर नहीं चाहता। आदमी को चोरी करने से कोई परहेज नहीं है, डर नहीं है। डर है तो सिर्फ इस बात से कि वह चोर के रूप में पहचाना न जाय। हमारी सारी शुचिता और नैतिकता का हमारे एकांत में कोई मूल्य नहीं है। उसका मूल्य है, भीड़ के सामने। उसकी कीमत है, प्रदर्शन में। हमारी सारी शुचिता और नैतिकता के मूल्यों का बाजारू बन जाना हमारे लिए कितना ग्लानि का विषय है, हम नहीं जानते। हम नहीं जानते कि हमारे जीवन में सारे के सारे ग्लानि के विषय गर्व के विषय के रूप में क्यों बदलते जा रहे हैं?  हमारे समय में व्यापक जनवर्ग के सामने भीषण चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं। हमारे सामने जीवन-यापन के ढंग और ढर्रे इतने मुश्किल होते जा रहे हैं कि हमारा जीना ही दुश्वार बनता जा रहा है। अब तो धीरे-धीरे सामान्य आदमी के लिए अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिला पाना भी उसके बूते के बाहर होता जा रहा है। शिक्षा की सुलभता की सरकार की घोषणाएं जनता के जले जी पर नमक छिड़कने जैसी पीड़ा पैदा करने के अलावा किसी काम की नहीं है। एक जनतांत्रिक देश में जनता के लिए कही जाने वाली शासन व्यवस्था में शिक्षा का आदमी की पहुंच से बाहर हो जाना कैसा पीड़ादायक है, कह पाना मुश्किल है। शिक्षा इतनी महंगी क्यों होती जा रही है? आदमी अपनी बीमारी का इलाज कराने में असमर्थ क्यों होता जा रहा है? विकास के वंचक नारों के शोर के बीच इन सवालों को सुनने वाला कोई नहीं है। हमारे समय में जीवन से जुड़े सवाल राष्ट्र-विरोधी बन गए हैं। राष्ट्र-विरोधी बनने के कलंक के डर से हमारे समय का हलक सूख रहा है।

पढ़ाई हमारे हाथ से बाहर हो जाए, कोई बात नहीं, हमें चुप रहना है। दवाई हमारे हाथ से बाहर हो जाए, कोई बात नहीं, हमें चुप रहना है। घर बनाना, शादी-ब्याह रचाना हमारे हाथ से बाहर हो जाए कोई बात नहीं, हमें चुप रहना है। हमें चुप रह कर, चुप्पी मार कर बस जिंदा रहना है। हमें जिंदा रहना है, सिर्फ इसलिए कि हमें पोलिंग बूथ जाकर वोट डालना है। जबान बंद रख कर वोट करते जाना राष्ट्रभक्ति है। हमारे देश में इतने तरह के विद्यालय क्यों हैं? इतने तरह के अस्पताल क्यों हैं? हमारी पहुंच से बाहर के अस्पताल क्यों हैं? ये सब गैर-मुनासिब सवाल हैं। ये सब शांति भंग के सवाल हैं। हम जिस जगह पर हैं और जिस महफिल में जमे रहने की जद्दोजहद में लथपथ हैं, वहां हमारा बने रहना दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है। स्थितियां विपरीत होती जा रही हैं। हम पढ़ाई, दवाई, शादी के लिए कर्ज लेने को, जमीन-मकान बेचने को मजबूर होते जा रहे हैं। हम रोज-रोज अपनी विरासत की गांठ गंवाते जा रहे हैं। मैंने बचपन में एक कहानी सुनी थी। एक बारात में एक लालाजी बाराती बन कर गए। जनवास के दिन दोपहर में नाच के लिए महफिल सज रही थी। उसी बीच लालाजी को पेट में गुड़गुड़ महसूस हुई। उन्होंने सोचा, महफिल शुरू होने से पहले निपट लेते हैं। बाद में बेवजह बाधा होगी। लालाजी खेत की तरफ निकल गए। कुछ दूर जाकर माटी के ढूह की आड़ में हाजत के लिए बैठ गए। जैसे ही लालाजी का पेट साफ हुआ, मिट्टी का मटका बिहला गया। सारा पानी बह गया। लालाजी हैरान, परेशान। अब क्या करें? चारों तरफ देखा। कोई दिखा नहीं। लालाजी आश्वस्त हुए। चलो कोई देख नहीं रहा है, यही क्या कम है। कोई दूसरा उपाय संभव न देख कर उन्होंने मिट्टी के ढेले से विलायती ढंग से शौचमुक्ति की। फिर आए। आकर बड़े शान से महफिल में जम गए।नाच शुरू हो चुका था। नर्तकी मंडलाकार, घूम कर नाच रही थी। गाना सम पर आया और उसने लालाजी के ठीक सामने झुक कर बड़ी अदा से गाने के बोल अर्ज किए- ‘लाला तेरी बतिया मैं कह दूंगी।’

लालाजी का कलेजा कांप उठा। आखिर यह कैसे जान गई! जो भी हो, जान गई तो जान गई। मगर कह देगी तो? बड़ी भद्द होगी। आबरू उतर जाएगी। नहीं, नहीं कहने नहीं देना होगा।
लालाजी ने अपनी धोती का फेंटा खोला, दो रुपए का कड़क नोट निकाला और मुस्कराते हुए बड़ी उत्फुल्लता से ईनाम पेश किया। नर्तकी खुश हुई। उसका चेहरा चमक उठा। पांव थिरक उठे। उसने समझा कि लालाजी को गाने की अदायगी बेहद पसंद है। वह घूम-घूम कर लालाजी के सामने आती, बोल दुहराती रही। लालाजी बख्शीश देते रहे। लालाजी चुप कराते रहे। वह गाती रही। गाना लंबा खिंचता रहा। लालाजी की गांठ खाली हो गई। वे धीरे से उठे, आंख बचा कर महफिल से बाहर हो गए। गाने के बोल फिर भी उनके कानों में बजते रहे- लाला तेरी बतिया मैं कह दूंगी।हमारे समय में हर कोई लालाजी की तरह हैरान-परेशान है। हम अपनी आंतरिक शुचिता का मूल्य अपने एकांत में भूल चुके हैं। हर क्षण आशंकित हैं कि हमारी आंतरिक सच्चाई कोई जान तो नहीं गया है। इधर बाजार है कि हमारे वजूद की रत्ती-रत्ती सच्चाई समझ रहा है। वह हमारी सामर्थ्य और लाचारी भी अच्छी तरह समझ रहा है। वह हमारी लाचारी से अपना लाभ भुनाने में लगा है। बाजार हमें दुह रहा है। वह विज्ञापन की भाषा में नए-नए गाने गढ़ रहा है। आकर्षक स्त्री स्वर में गा रहा है। रिझा रहा है। हम अपनी विरासत की गांठ लुटा रहे हैं। लुटाते जा रहे हैं। फिर भी…। फिर भी सवाल है कि क्या, हम जहां हैं, जिस दिखावे की नकली महफिल में जमे रहना चाहते हैं, वहां जमे रह पाएंगे। शायद नहीं। कर्ज लेकर, जमीन बेंच कर, मकान गिरवी रख कर वहां जमे रहना लंबे समय तक मुमकिन नहीं है। हमारी गांठ खाली होनी ही है। हमें महफिल से बाहर होना ही है। हम बाहर होंगे, मगर अपने गांठ की सारी पूंजी गंवा कर।

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