Thursday, April 18, 2024
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मुद्दा- नसबंदी में पुरुष पीछे क्यों

SI News Today

किसी भी क्षेत्र में महिलाओं के आगे होने के आंकड़े बदलाव को दर्शाते हैं। लेकिन परिवार नियोजन के मामले में महिलाओं का पुरुषों से आगे होना समाज और परिवार में उनके दोयम दरजे को ही बताते हैं। ये आंकड़े बताते हैं कि घर-परिवार से जुड़ी इस अहम जिम्मेदारी को निभा रही नसबंदी या अन्य गर्भनिरोधक इस्तेमाल करने में अव्वल आधी आबादी, आज भी किस कदर भावनात्मक और शारीरिक रूप से शोषित है। हाल ही में सामने आए राष्ट्रीय स्वास्थ्य परिवार सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि परिवार नियोजन की जिम्मेदारी महिलाओं के कंधे पर है। गौरतलब है कि हमारे देश में परिवार नियोजन के तरीकों में आज भी नसबंदी सबसे प्रमुख है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य परिवार सर्वेक्षण के 2015-2016 के मुताबिक परिवार नियोजन के लिए उपलब्ध सभी माध्यमों में तीन चौथाई से अधिक लोगों ने नसबंदी को ही अपनाया है। लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि इसमें पुरुष नसबंदी की हिस्स्सेदारी एक फीसद से भी कम है। सर्वेक्षण के अनुसार पुरुष नसबंदी की हिस्सेदारी मात्र 0.63 फीसद है, जबकि परिवार नियोजन के तरीकों में स्त्री- नसबंदी का हिस्सेदारी 75.31 प्रतिशत है, जबकि गर्भ निरोधक गोलियों का इस्तेमाल का फीसद 8.58 किया जा रहा है । बेशक यहां भी महिलाओं को ही परिवार नियोजन के लिए मोहरा बनाया जा रहा है।

बीते कुछ सालों में महिलाओं में शिक्षा के आंकड़े भी बढ़े हैं और जागरूकता भी आई है। शहर ही नहीं गांवों में भी महिलाओं में परिवार नियोजन के प्रति चाह बढ़ी है। वे समझने लगी हैं कि अधिक बच्चों को जन्म देने से उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। साथ ही भविष्य में परिवार की आर्थिक स्थिति और बच्चों की शिक्षा और सेहत भी प्रभावित होता है। उनकी इस जागरूकता का प्रमाण है उनके द्वारा परिवार सीमित रखने के लिए करवाए जाने वाले नसबंदी आॅपरेशन के आंकड़े। चिकित्सकों का मानना है कि नसबंदी से पुरुषों के स्वास्थ्य पर कोई असर नहीं पड़ता। इसके बावजूद पुरुषों की तुलना में महिलाओं की नसबंदी पर इतना जोर क्यों है? यह अंतर इतना ज्यादा है कि अप्रत्यक्ष रूप से परिवार में महिलाओं की कमजोर स्थिति को ही रेखांकित करता है । इस विषय से जुड़े अधिकतर सर्वेक्षण यही बताते हैं कि नसबंदी करवाने वाले पुरुषों का प्रतिशत आज भी नाममात्र ही है। इतना ही नहीं पुरुष वर्ग परिवार नियोजन के अन्य माध्यमों के प्रति भी उदासीन है, जबकि आधी आबादी अपनी सेहत को दांव पर लगा कर भी इस मोर्चे पर डटी हुई है। इससे स्पष्ट होता है कि परिवार नियोजन की बात जब आती है कि पुरुषवादी समाज पहले महिलाओं को ही इसके लिए बाध्य करता है। कई बार महिलाओं को यह भी लगता है कि परिवार नियोजित करना भी जरूरी है और उनके पति इसमें सहयोग नहीं करेंगे तो वे खुद ही गर्भ निरोधक गोलियों का सेवन हो या नसबंदी कराने का मामला, आगे आ जाती हैं। ज्यादातर मामलों में नसबंदी करवाने के लिए महिलाओं पर पारिवारिक दबाव बनाया जाता है। यही वजह है कि जनसंख्या वृद्धि के मामले में दुनिया के सबसे तेज वृद्धि वाले देशों में शुमार भारत, पुरुष नसबंदी के मामले में बहुत पीछे है।

परिवार नियोजन का अर्थ ही यही है कि दंपति मिलकर फैसला करें कि दोनों के कितने बच्चे हों और कब हों? साथ ही दोनों में से कोई एक किसी उचित तकनीक या तरीके को अपना कर इसमें हिस्सेदारी भी निभाए। हालांकि, महिलाएं बड़ी संख्या में अपनी इस जरूरी हिस्सेदारी को निभा रहीं है, लेकिन पुरुष बहुत पीछे हैं। ऐसा भी नहीं है कि नसबंदी से भागने की प्रवृत्ति दूरदराज के गांवों या कम शिक्षित या मजदूर वर्ग में ही हैं। शिक्षित, पढे-लिखे और शहरी पुरुष भी नसबंदी से भयाक्रांत रहते हैं। यह जानने के बावजूद कि नसबंदी कराने से कोई हानि नहीं होती, ज्यादातर पुरुष इस वहम के शिकार हैं कि इससे वे नपुंसकता के शिकार हो सकते हैं या यौनानंद से वंचित हो सकते हैं। इस वजह से पुरुष वर्ग इससे बिदकता है। लगता है कि छोटा परिवार रखने की अंतिम जिम्मेदारी सिर्फ महिला की है, पुरुष की नहीं। इतना ही नहीं हमारे यहां सरकारी प्रयासों और योजनाओं में भी आबादी नियंत्रण के लिए गर्भ रोकने के दूसरे विकल्पों से ज्यादा महिलाओं की नसबंदी पर जोर दिया जाता है । गैरसरकारी संगठन ‘पॉपुलेशन फाउंडेशन आॅफ इंडिया’ के मुताबिक भारत में परिवार नियोजन के बजट का 85 प्रतिशत हिस्सा महिलाओं की नसबंदी करने और इसे बढ़ावा देने के लिए इस्तेमाल होता है। 2013-14 के राष्ट्रीय परिवार नियोजन कार्यक्रम के लिए कुल चार अरब रुपए के बजट में से 3.4 अरब रुपए महिलाओं की नसबंदी पर खर्च किए गए, जबकि जरूरत इस बात की है कि सरकार नसबंदी के अलावा गर्भनिरोध के अन्य विकल्पों को बढ़ावा देने के लिए ज्यादा खर्च करे। देखने में यह भी आता है कि देश में बड़े पैमाने पर योजनाबद्ध तरीके से शिविर लगाकर भी नसबंदी की जाती है। सही चिकित्सकीय सेवाओं के अभाव में ऐसे शिविरों में कई बार दुर्घटनाएं भी होती हैं , जो महिलाओं के लिए घातक साबित होती हैं। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि उपलब्ध विकल्पों में सही विकल्प चुनकर अपने परिवार और जीवनसाथी की सुरक्षा के लिए पुरुष भी आगे आएं।

परिवार को सीमित रखने के मामले में महिलाएं पुरुषों से कहीं अधिक हिस्सेदारी र रही हैं तो यह कोई सुखद आंकड़ा नहीं है। महिलाओं के साथ जबरदस्ती भी हो रही है। पुरुषों को चाहिए कि अगर वे यह समझते हैं कि परिवार नियोजन जरूरी है तो उन्हें खुद भी इसकी जिम्मेदारी उठानी चाहिए। अपने देश और परिवार की खुशहाली के लिए परिवार नियोजन के साधन बेझिझक अपनाने चाहिए। लेकिन सवाल यह भी है कि हर मामले में दोयम दर्जे पर रखी जानी वाली महिलाएं नसबंदी के मामले में ही पुरुषों से आगे क्यों हैं ? मामला साफ है कि जहां खतरा उठाने की बात है, वहां महिलाओं को आगे कर दो। अगर नसबंदी नुकसानदेह है तो स्त्री के लिए भी है और पुरुष के लिए भी। फिर महिलाओं को ही बलि का बकरा क्यों बनाया जाता है। अगर नहीं तो पुरुषों को इससे छूट क्यों मिलनी चाहिए? पुरुषों की संकीर्ण सोच भी यहां सामने आती है। महिलाओं के समाज और परिवार में तथाकथित समानता के क्या हालात हैं? बरबारी की बात करने वाला पुरुष समाज इस मामले में चुप्पी साध लेता है। आज के समय में पुरुषों की तुलना में कहीं अधिक महिलाएं अपने पारिवारिक सरोकारों को लेकर जागरूक और चिंतित हैं, लेकिन परिवार नियोजन का सारा दारोमदार महिलाओं पर ही क्यों थोपा जा रहा है ? राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी तेजी से बढ़ी है। उच्च शिक्षण संस्थानों तक लड़कियों की पहुंच लगातार बढ़ रही है। महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता के आंकड़े भी बढे हैं, यह कौन सी प्रगति है, जहां आज भी महिलाओं को दबाने की तरकीबीं तलाशी जाती हैं। गृहिणियां हों या कामकाजी महिलाएं, घर और बाहर अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए परिवार नियोजन के मोर्चे पर भी डंटी हैं। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि हर मामले में आगे रहने वाला पुरुष समाज इस मामले में पीछे क्यों भाग रहा है ? ०

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