Wednesday, March 27, 2024
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ईमानदार पत्रकारों की इतनी बुरी हालत मैंने पहले कभी नहीं देखी : प्रभात डबराल

SI News Today

Source :Viwe Source

कई महीनों बाद कल रात प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया गया…मंगलवार के बावजूद बड़ी भीड़ थी…कई पत्रकार जो आमतौर पर क्लब नहीं आते, कल आये हुए थे क्योंकि कल संसद में शपथग्रहण था, संसद भवन में पार्किंग बंद थी इसलिए कईयों ने प्रेस क्लब में गाड़ी खड़ी कर दी थी….जाते जाते एकाध टिकाने का लोभ ज़्यादातर पत्रकार छोड़ नहीं पाते…अपने ज़माने में भी ऐसा ही होता था…स्टोरी लिखने के बाद सबसे ज़रूरी काम यही होता था….देखकर अच्छा लगा कि पत्रकारों में जिजीविषा अभी बाकी है…

लेकिन ये पोस्ट मैं प्रेस क्लब की मस्ती बयान करने के लिए नहीं लिख रहा हूँ….प्रेस क्लब को मैंने खूब जिया है… 1984 से यहां का मेंबर हूँ, चार बार वाईस प्रेजिडेंट, एक बार प्रेजिडेंट रहा हूँ…बाहर कहीं भी कुछ भी हो रहा हो, प्रेस क्लब ज़िंदादिल लोगों का अड्डा था…यहाँ के लोग इमरजेंसी के खिलाफ भी खूब बोले और जब प्रेस को दबाने के लिए राजीव गाँधी के ज़माने में कानून बनने लगा तब भी यहाँ लोगों ने जमकर आवाज़ उठाई..

लेकिन कल रात पहली बार मैंने लोगों की बातों में अजीब सी निराशा और हताशा देखी…. तीन-चार ड्रिंक होते होते ये स्पष्ट होने लगा कि पत्रकारिता के क्षेत्र में सब कुछ सही नहीं चल रहा है… “अरे काहे की पत्रकारिता, और ये हमसे क्या पूछते हो, सम्पादकों से पूछो, उनकी हालत ज़्यादा ख़राब है”. रिपोर्टर हो या फोटोग्राफर, सबका यही कहना था… कल अख़बार में क्या छपेगा क्या नहीं, ये फैसला करते करते संपादक की नानी मर जाती है. न जाने किस बात पर मालिक का फ़ोन आ जाये…. क्योंकि छपना वही है जो मालिक चाहे और मालिक वही चाहेगा जो सरकार चाहे, इसलिए हम भी क्यों मेहनत करें…

ऐसा नहीं है कि अपने ज़माने में अखबारों के मालिक व्यापारी नहीं थे, लेकिन तब खबरों पर उनका उतना हस्तक्षेप नहीं था. सरकार उन्हें ज़्यादा नहीं दबाती थी, इसलिए वो भी सम्पादकों को इतना नहीं गरियाते थे…अब सब कुछ बदल गया है…संपादक नाम की संस्था मालिक की तिजोरी में बंद है और तिजोरी की चाभी सरकार ने अपने पास रख ली है.. रिपोर्टरों का वो बिंदास अंदाज़ जो तीन-चार पेग के बाद और निखर उठता था, कल रात दिखाई नहीं दिया….

अपन कोई स्टोरी करें तो इस बात का क्या भरोसा कि कल वो छपेगी या नहीं…क्या पता उससे किसकी पूँछ दब रही है और उसकी पहुँच कहाँ तक है, इसलिए उतना करो जितने में सब खुश रहें… ज़्यादातर पत्रकारों की हालत सरकारी बाबुओं जैसी दीन हीन हो गयी है. तभी तो सारे अख़बार नीरस हो गए हैं… एक ज़माना था जब किसी नेता के खिलाफ लिखने पर फ़ोन आते थे… अब तो व्यापारियों के भ्रष्टाचार पर भी नहीं लिख सकते…सब के सब पहुंचवाले हो गए हैं… पत्रकारों की, ईमानदार पत्रकारों की इतनी बुरी हालत मैंने पहले कभी नहीं देखी….. लोकतंत्र का एक खम्बा बुरी तरह हिल रहा है..

SI News Today

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