Friday, March 29, 2024
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शिकस्त के जरिये बाजी जीतने का दांव चल रहे हैं मुलायम…

SI News Today

लखनऊ: समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव नई सियासी राह का एलान करने आए थे। इसकी राह क्या होगी, इसका लिखित रोडमैप लाए थे। मगर उसके एलान से गुरेज कर गए। पूर्व मंत्री शारदा प्रताप शुक्ल ने नए दल के गठन की घोषणा का इशारा किया तो मुलायम ने पन्ना लौटाते हुए कहा, “इसे बाद में देख लेंगे।” इसे भले मुलायम का चरखा दांव कहा जाए, मगर सियासी चेतना से परखें तो मुलायम सिंह अपनी शिकस्त में भी ‘जीत’ देख रहे हैं, क्योंकि उनके इस निर्णय का सीधा लाभ उनके पुत्र अखिलेश यादव को मिलेगा। यही कारण है कि भाई शिवपाल यादव के साथ नया मोर्चा गठित करने पर बिन्दुवार चर्चा के बाद भी वह अंतिम समय में पलट गए। मुलायम सिंह का अपनी बात से पलटने का अतीत पुराना है…

यूं तो मुलायम सिंह का अपनी बात से पलटने का अतीत पुराना है। मगर अगस्त 2016 के बाद उनके इस दांव की जद में उनका परिवार ही आने लगा। अगस्त 2016 से अब तक इस परिवार के दांव-पेंच इसकी नजीर है। 21 सितंबर से कलह का नया दौर सामने आया। इस दिन मुलायम ने अपने चचेरे भाई प्रो. रामगोपाल यादव को डॉ. राम मनोहर लोहिया ट्रस्ट के सचिव पद से हटा दिया। 25 सितंबर को प्रेस कॉन्फ्रेंस की घोषणा की गई और बड़े फैसलों के एलान का संकेत किया गया। चार दिनों की इस अवधि में मुलायम ने भाई शिवपाल यादव, पुरानी साथी भगवती सिंह, शारदा प्रताप शुक्ला, रघुनंदन काका, मधुकर जेटली, राम सेवक यादव, आशु मलिक के साथ कई चरण में प्रदेश के राजनीतिक हाल, सपा में मुलायम और उनके समर्थकों की हैसियत पर चर्चा हुई। इसमें सपा के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम के उस सर्कुलर का हवाला दिया गया, जिसमें राष्ट्रीय सम्मेलन के लिए नेताओं के तस्वीरों का जो प्रारूप भेजा गया था, उसमें से मुलायम गायब थे। यह प्रारूप दिखाकर उन्हें बताया गया कि पार्टी कैसे मुलायम को इग्नोर कर रही है। सूत्रों का कहना है कि तर्कों के आगे झुकते हुए मुलायम मोर्चा गठित करने पर राजी हो गए, लेक‍िन अभी उसकी घोषणा को तैयार नहीं थे, जबकि अन्य लोग घोषणा का दबाव बना रहे थे।

दांव-पेंच में एक्सपर्ट हैं मुलायम
सूत्रों का कहना है कि रविवार की सुबह मुलायम ने मोर्चा की योजना टालने को कहा, इस पर सहमति बन गई। मगर उसी दोपहर परिवार के कुछ अन्य सदस्यों से बात के बाद मुलायम फिर मोर्चा बनाने पर राजी हो गए। जिसकी रूपरेखा तैयार कर ली गई। तय किया गया कि अभी मोर्चे का नाम घोषित नहीं किया जाएगा, मगर राजनीति का नया रोड मैप बताया जाएगा। सूत्रों का कहना है कि मुलायम ने घोषणा के लिए एक नोट तैयार करने को कहा है, लेक‍िन रविवार की रात तक बन नहीं पाया। सोमवार की सुबह नोट बना। उसे जब मुलायम को दिखाया गया तो वे नाराज हो गए। सूत्रों का कहना है कि मुलायम स‍िंह ने शिवपाल से फोन पर इस संबंध में बात की। हालांक‍ि, प्रेस कॉन्फ्रेंस में मोर्चा की बात करने से इनकार कर दिया। बमुश्किल 5 मिनट की इस बात के दौरान ही शिवपाल यादव ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में नहीं आने का फैसला सुना दिया और नए मोर्चे के अस्तित्व में आने की संभावना को विराम लग गया। दरअसल, मुलायम अपने इसी दांव-पेंच के चलते राजनीतिक जीवन में विरोधियों पर भारी पड़ते रहे हैं, मगर इस बार का संघर्ष घर के अंदर है। यूपी की राजनीति को करीब से परखने और उस पर मशहूर किताब लिखने वाले बृजेश शुक्ल कहते हैं कि मुलायम की राजनीति दो कदम आगे और पीछे की रही है, मगर इस बार परिवार के अंदर की लड़ाई है। एेसे में मुलायम खुद हार कर बेटे को जिताने की राजनीति कर रहे हैं।

अजित स‍िंह पर भारी पड़े मुलायम
भारतीय लोकदल में रहते हुए मुलायम सिंह को अपना सियासी वजूद बचाने के लिए चौ. चरण सिंह के पुत्र अजित सिंह से भी टकराव लेना पड़ा था। साल 1987 में मुलायम ने अजित से अलग होकर लोकदल (ब) बनाया और लंबे संघर्ष के बाद उन्होंने खुद को केवल प्रदेश ही नहीं राष्ट्रीय सियासत में साबित किया।

अयोध्या गोलीकांड
रामजन्म भूमि मंदिर आंदोलन के दौरान साल 1990 का अयोध्या गोलीकांड भी मुलायम सिंह के राजनीतिक जीवन का टर्निंग प्वॉइंट रहा। पुलिस की गोलियों से 16 कारसेवकों की मौत हो जाने से मुलायम के करियर पर सवाल उठने लगे थे, परंतु बसपा के साथ गठजोड़ कर उन्होंने शानदार राजनीतिक वापसी की। यह अलग बात है कि सपा और बसपा गठजोड़ अधिक दिन तक नहीं चल पाया।

रामपुर तिराहा कांड
मुलायम सिंह के राजनीतिक जीवन में उत्तराखंड आंदोलन के दौरान 2 अक्टूबर 1994 का वीभत्स कांड भी अग्निपरीक्षा से कम नहीं था। मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहा पर पुलिस की गोलियों से आधा दर्जन लोग मारे गए थे और महिलाओं से दुष्कर्म के मुद्दे पर मुलायम चौतरफा घिरे थे। रामपुर तिराहा कांड के बाद अलग उत्तराखंड गठन की राह आसान हो गई थी। मुलायम की राजनीतिक नाव डगमगायी जरूर, परंतु जल्द ही मुख्यधारा में आ गई।

गेस्ट हाउस कांड
2 जून 1995 की घटना भी मुलायम सिंह यादव के सियासी जीवन की विकट घड़ी रही। पूरे देश में इस गठबंधन को बड़ी आशा से देखा जा रहा था, परंतु 2 जून 1995 को मीरा बाई गेस्ट हाउस में घटित घटना ने मुलायम सिंह को एक बार फिर हाशिए पर ला दिया। इसे मुलायम सिंह यादव का जुझारूपन ही कहा जाए, जो उन्होंने अगस्त 2003 में फिर से मुख्यमंत्री पद हासिल करने में कामयाबी हासिल की।

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