Friday, March 29, 2024
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इस विधि से करें पूजा और पढ़ें ये कथा, सफल होगा व्रत…

SI News Today

प्राचीन काल में एक धर्मात्मा और दानी राजा थे। राजा का नाम मुचुकुन्द था। प्रजा उन्हें पिता के समान मानते और वे प्रजा को पुत्र के समान। राजा मुचुकुन्द वैष्ण्व थे और भगवान विष्णु के भक्त थे। वे प्रत्येक एकादशी का व्रत बड़ी ही निष्ठा और भक्ति से करते थे। राजा का एकादशी व्रत में विश्वास और श्रद्धा देखकर प्रजा भी एकादशी व्रत करने लगी। राजा की एक पुत्री थी, जिसका नाम चन्द्रभागा था। चन्द्रभागा भी पिता जी को देखकर एकादशी का व्रत रखती थी। चन्द्रभागा जब बड़ी हुई तो उसका विवाह राजा चन्द्रसेन के पुत्र शोभन के साथ कर दिया गया। शोभन भी विवाह के पश्चात एकादशी का व्रत रखने लगा। कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी आयी तो नियमानुसार शोभन ने एकादशी का व्रत रखा।

व्रत के दरान शोभन को भूख लग गयी और वह भूख से व्याकुल हो कर छटपटाने लगा और इस छटपटाहट में भूख से शोभन की मृत्यु हो गयी। राजा रानी जमाता की मृत्यु से बहुत ही दु:खी और शोकाकुल हो उठे और उधर पति की मृत्यु होने से उनकी पुत्री का भी यही हाल था। दु:ख और शोक के बावजूद इन्होंने एकादशी का व्रत छोड़ा नहीं बल्कि पूर्ववत विधि पूर्वक व्रत करते रहे।

एकादशी का व्रत करते हुए शोभन की मृत्युं हुई थी अत: उन्हें मन्दराचल पर्वत पर स्थित देवनगरी में सुन्दर आवास मिला। वहां उनकी सेवा हेतु रम्भा नामक अप्सरा अन्य अप्सराओं के साथ जुटी रहती है। एक दिन राजा मुचुकुन्द किसी कारण से मन्दराचल पर गये और उन्होंने शोभन को ठाठ बाठ में देखा तो आकर रानी और अपनी पुत्री को सारी बातें बताई। चन्द्रभागा पति का यह समाचार सुनकर मन्दराचल पर गयी और अपने पति शोभन के साथ सुख पूर्वक रहने लगी। मन्दराचल पर इनकी सेवा में रम्भादि अप्सराएं लगी रहती थी अत: इसे रम्भा एकादशी कहते हैं।

व्रत विधि-
रम्भा एकादशी या रमा एकादशी का व्रत कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष में रखा जाता है। विवाहिता स्त्रियों के लिए यह व्रत सभाग्य देने वाला और सुख प्रदान करने वाला कहा गया है। इस एकादशी के विषय में पद्म पुराण में काफी विस्तार से बताया गया है। अग्नि पुराण में एकादशी के विधान में कहा गया है कि दशमी तिथि को सात्विक भोजन करें और काम-वासना से मन को हटाकर हृदय शुद्ध और पवित्र रखें और एकादशी के दिन प्रात: स्नान करके पूजा-पाठ करें। द्वादशी तिथि को ब्रह्मण को भोजन कराकर एवं दक्षिणा देकर विदा करें फिर व्रती को अन्न ग्रहण करना चाहिए।

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