पौराणिक मान्यताओं के अनुसार देव दिवाली हर वर्ष दिवाली के ठीक 15 दिनों बाद माता गंगा की पूजा के लिए मनाई जाती है। कार्तिक माह के पूरे चांद के दिन यानि पूर्णिमा को देव दिवाली मनाई जाती है। हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार इस दिन धरती पर आते हैं और उत्सव मनाते हैं। इस पर्व का विशेष महत्व भारत देश के उत्तर प्रदेश के वाराणसी राज्य से है। वाराणसी को भगवान शिव की नगरी कहा जाता है। इस दिन भोलेनाथ के सभी भक्त एक साथ माता गंगा के घाट पर लाखों दीए जला कर देव दीवाली का उत्सव मनाते हैं। मान्यताओं के अनुसार इस दिन काशी के घाटों पर सभी देव उतर कर भगवान शिव की विजय की खुशी में दिवाली मनाते हैं। इस दिन माता गंगा की पूजा की जाती है। काशी के रविदास घाट से लेरप राजघाट तक लाखों दीए जलाए जाते हैं।
देव दिवाली व्रत कथा-
देव दिवाली व्रत कथा के अनुसार दैत्य ताड़कासुर के तीन पुत्र थे। तारकाक्ष, कमलाक्ष, और विद्युन्माली। भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर का वध कर दिया तो उसका बदला लेने के लिए उसके पुत्रों ने तपस्या करके ब्रह्मा जी से अमर होने का वरदान मांगा, पर उन्होनें कहा कि तुम इसकी जगह कुछ और मांग लो। इसके बाद उन तीनों ने कहा कि आप हमारे लिए तीन नगर बनवाएं और हम जब एक हजार साल बाद मिलें तो जो हमारा वध करना चाहता है वो एक ही तीर से हमें नष्ट कर सके। ब्रह्माजी ने उन्हें ये वरदान दे दिया।
इसके बाद अपने पराक्रम से इन तीनों ने तीनों लोकों पर कब्जा कर लिया। इससे डरकर सभी देव भगवान शिव के पास गए। इसके बाद भगवान ने शिव त्रिपुरा का वध करने लिए विश्वकर्मा से एक रथ का निर्माण करवाया। उस दिव्य रथ पर जब भगवान शंकर दैत्यों का वध करने निकले तो सभी राक्षसों में भय फैल गया। दानवों और देवों में युद्ध छिड़ गया और युद्ध के दौरान जब त्रिपुरा एक सीध में आए तो भगवान शंकर ने एक ही तीर से उनका वध कर दिया। इसके बाद से भगवान शंकर को त्रिपुरारी कहा जाने लगा। भगवान शिव की इसी विजय का उत्सव मनाने के लिए सभी देव कार्तिक पूर्णिमा के दिन धरती पर आते हैं। इसी विजय के उपलक्ष्य में देव दिवाली मनाई जाती है।