Tuesday, March 26, 2024
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देश की पहली भारतीय महिला, जिसने चुना डॉक्टरी पेशा…गूगल ने बनाया डूडल

SI News Today

दिल्ली: जैसे ही आज आप गूगल पर सर्च करने के लिए जाते है, तो आपको एक तस्वीर दिखती है, अस्पताल का कमरा, मरीजों की देखभाल करती नर्स. एक सौम्य महिला के गले में लिपटा स्टेथोस्कोप की तस्वीर. अब जेहन में सबसे पहले यही बात आती है कि आखिर गूगल ने ये डूडल किस के लिए बनाया है, किस पर बनाया है, तो ये महिला कोई और नहीं रुक्माबाई है. आज गूगल ने रुक्माबाई के जन्मदिवस पर एक खूबसुरत डूडल बनाकर उनको याद किया है. औपनिवेशिक भारत में रूक्माबाई पहली भारतीय डॉक्टरों में से एक थी जो डॉक्टरी पेशा का अभ्यास करती थी. रूक्माबाई ने उस समय डॉक्टरी पेशा चुना जब महिलाओं के लिए कोई अधिकार नहीं था.

रूक्माबाई का जीवन सहर्षों से भरा रहा है, जब वह ग्यारह वर्ष की उम्र की थी जब उन्नीस वर्षीय दुल्हे दादाजी भिकाजी से उसकी शादी कर दी गई थी. लेकिन दादाजी के साथ में रहने से मना कर दिया. 1884 में दादाजी ने पत्नी का साथ पाने के लिए कानूनी दावा पेश किया. बाल विवाह और महिलाओं के अधिकारों पर एक बड़ी सार्वजनिक चर्चा हुई रुक्मा ने उनकी गरीबी और खराब स्वास्थ्य के आधार पर उन्हें अस्वीकार कर दिया.

उन्होंने 11 की उम्र में हुए विवाह की वैधता पर भी प्रश्न उठाया. 1885 में जजों के निर्णय ने दादाजी के वैवाहिक अधिकारों के सौंपे जाने के दावे को रद्द कर दिया. दादाजी भिकाजी बनाम रुखमाबाई, 1885 को भिकाजी के “वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना” मांगने के साथ सुनवाई के लिए आया था और न्याय न्यायाधीश रॉबर्ट हिल पिनहे ने निर्णय पारित किया गया था. पिनहे ने कहा कि पुनर्स्थापना पर अंग्रेजी उदाहरण यहां लागू नहीं होते क्योंकि अंग्रेजी कानून सहमत परिपक्व वयस्कों पर लागू किया जाना था. अंग्रेजी कानून के मामलों में कमी थी और हिंदू कानून में कोई मिसाल नहीं मिली.

उन्होंने घोषणा की कि रुखमाबाई की शादी उसके “असहाय बचपन” में कर दी गई थे और वह एक युवा महिला को मजबूर नहीं कर सकते थे हालांकि बाद में 1888 में दोनों पक्षों के मध्य एक समझौता हुआ जिसमें रुक्मा द्वारा अपने पति को कुछ आर्थिक हर्जाना दिलवाया और उसे साथ रहने से मुक्त किया. फिर उन्नीस वर्ष की आयु में रूक्माबाई की शादी एक विधुर, डॉ. सखाराम अर्जुन से विवाह कर दिया गया. लेकिन रुखमाबाई परिवार के घर में ही रही और फ्री चर्च मिशन पुस्तकालय से पुस्तकों का उपयोग करके घर पर ही पढ़ाई की. रूखमाबाई ने इस दौरान अपनी पढ़ाई जारी रखी और एक हिंदू महिला के नाम पर एक अख़बार को पत्र लिखे.

उसके इस मामले में कई लोगों का समर्थन प्राप्त हुआ और जब उस ने अपनी डाक्टरी की पढ़ाई की इच्छा व्यक्त की तो लंदन स्कूल ऑफ़ मेडिसन में भेजने और पढ़ाई के लिए एक फंड तैयार किया गया. उसने स्नातक की उपाधि प्राप्त की और भारत की पहली महिला डॉक्टरों में से एक (आनंदीबाई जोशी के बाद) बनकर 1895 में भारत लौटी, और सूरत में एक महिला अस्पताल में काम करने लगी. रुखमाबाई एक सक्रिय सामाजिक सुधारक थी. 25 सितंबर,1991 में उनकी मौत हो गई.

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