The rain is becoming the Anger of Nature.
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मानसून के शुरू होते ही लोगो के चेहरे ख़ुशी से खिल उठते थे चारों ओर खुशनुमा माहौल हो जाता था। मानसून आते ही लोगों को गर्मी कि तपिस से राहत महसूस होने लगती है। लेकिन इस बार यही मानसून प्रकृति का क्रोध बनकर लोगो पर ऐसा बरसा कि जिसमे एक दो लोग नहीं बल्कि पूरे पूरे राज्य प्रकृति के रोष का ग्रास बन गए है। इस बार बारिश और बाढ़ के तांडव ने कई राज्यों के कई जिलों को बड़े रूप में प्रभावित किया है। केरल और हिमाचल प्रदेश ऐसे प्रदेश जहां इन दिनों बारिश और बाढ़ का कहर चारों ओर देखा जा सकता है। बात सिर्फ केरल या हिमाचल प्रदेश कि नहीं है यदि इसी तरह प्रकृति द्वारा प्रदान किये गए संसाधनों का दुरूपयोग होता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब प्रकृति प्रकोप बनकर पूरी दुनिया पर बरसेगी।
अतिवृष्टि को प्रकृति का गुस्सा कहे या प्रकृति कि चेतावनी-
इन दिनों केरल राज्य में बाढ़ से चारों ओर त्राहि त्राहि मची हुई हर तरफ से मदद कि गुहार सुनाई दे रही है। भूख प्यास से लोग बिलख रहे है। मदद के लिए तीनो दलों कि सेनाये लोगों के लिए संकट मोचन बनकर जुटी हुई है अन्य राज्यों से सहायता सामग्री भेजी जा रही है। लोगो को बचाकर सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया जा रहा है। लेकिन सवाल तो ये है कि क्या भविष्य में हम सुरक्षित है?आज छोटी छोटी नदिया भी जल स्तर बढ़ जाने से उफान पर है कही बारिश का कहर तो कही सूखे कि मार झेल रहा है मानव। इस बदलाव के पीछे बदलते पर्यावरण को नकारा नहीं जा सकता।
पिछले तीन चार दशकों में जो भी विकासीय आयाम तय किये गए उनमे कही भी इस पहलू पर गंभीरता नहीं दिखाई गई कि इस तरह के अनियोजित विकास से आने वाले समय में इसके दुष्परिणाम भी संभव हो सकते है। विकास की दौड़ में भागते भागते हम प्रकृति को रौंदते चले गए। हरे भरे जंगलों को काटते गए सड़के बनाते गए । पहाड़ो कि ऊंचाइयों कि जगह ऊँची ऊँची इमारतों ने ले ली। साथ ही कई तरह के अनियोजित निर्माण प्रकृति के साथ सामजस्य नहीं बना पाते है। देश हो या शहर या गांव विकास की भाग दौड़ प्रकृति द्वारा दिए गए अनमोल संसाधनों का दुरूपयोग करने से हम तनिक भी नहीं संकुचते है। गांव को शहरों से शहरों को देश जोड़ने के चक्कर में हम सड़कों का निर्माण करते जाते है पानी निकासी के मार्ग बंद होते गए। जहां बारिश का पानी मिटटी सोख लिया करती थी। आज वही पानी बाढ़ का नया रूप ले लेती है जरा सी बारिश भी आज बाढ़ जैसा मंजर ला देती है। अब साल का कोई महीना या मौसम नहीं होता है जो सामान्य हो। कभी गर्मी की तपिस है तो कभी सर्दियों की धुंध। मौसम की अति ही हमारी नियति बनती जा रही है। यदि प्रकृति के संसाधनों का ऐसे ही दुरूपयोग होता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब हम सब भी प्रकृति के प्रकोप का शिकार होगें और तब शायद मदद करने वाले लोग भी नहीं होंगे। अतिवृष्टि प्रकृति की चेतावनी ही है हे मानव सम्भल जाओ नहीं तो इससे बुरे दुष्परिणाम सामने आने वाले है।