लखनऊ : सुप्रीम कोर्ट के आदेश को दरकिनार लगाकर चार चहेते अवर अभियंताओं को लोक निर्माण विभाग ने विनियमित कर दिया. जिसके चलते अन्य अभियंताओं में रोष व्याप्त है. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने जो आदेश 2 नवंबर 1993 को अपने जारी आदेश में 54 तदर्थ सहायक अभियंता से सहायक अभियंता के पद पर विनियमित किये जाने के आदेश जारी किये थे. आदेश में ये भी कहा गया था जिन अभियंताओं ने दस साल कि सेवा पूरी कर ली हो, उन सभी अभियंताओं को उसी तारीख से विनियमित कर दिया जाये.
बावजूद इसके शासन में उच्च पदों पर बैठे तत्कालीन अफसरों ने अन्य तदर्थ सहायक अभियंताओं का विनियमितीकरण इस लिय्रे रोक दिया कि उनके पास अभी अन्य पद सृजित नहीं हैं. जबकि सुप्रीम कोर्ट का आदेश स्वत: ही कानून है, और तो और लोक निर्माण विभाग द्वारा 4 जुलाई 1995 को सहायक अभियंताओं की जारी हुई अंतरिम ज्येष्ठा सूची में पद सृजित किये गए थे. मजेदार बात है कि जिन चार सहायक अभियंताओं को विनियमित किया गया, उन्हें पहले शासन ने तदर्थ और मूल पद पर भेज दिया था. लेकिन बाद में इन पहुँच वाले अभियंताओं को विनियमित भी कर दिया. बताया जाता है कि इन अभियंताओं में आर जी प्रसाद, बंशीलाल, नेपाल सिंह और बच्चूलाल कुरील शामिल हैं.बचे हुए 38 अभियंताओं को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुपालन से वंचित रखा गया, जो अपने आप में भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा नमूना है.
इस मामले से पीड़ित एक अवर अभियंता ने अपने से कनिष्ठ सहायक अभियंता अशोक कुमार कौशिक,एल के श्रीवास्तव आदि के विरुद्ध हाईकोर्ट में याचिका दायर की. याचिका संख्या-1424 / 2008 पर सुनवाई करते हुए अदालत ने दिनांक -9 /07 /2013 को अपना ये फैसला सुनाया कि ये प्रकरण गंभीर है. इसलिए इस प्रकरण की एसआईटी गठित कर विजलेंस से जाँच कराई जाये. जिसके चलते शासन ने इस गंभीर प्रकरण की जाँच करने की बजाय सुप्रीम कोर्ट में हाईकोर्ट के इस आदेश के विरुद्ध गलत तथ्यों के आधार पर एसएलपी दायर की. नतीजतन उन्हें रहत मिल गयी. जानकर सूत्र बताते हैं कि चूँकि मामला सत्ता के गलियारों में घुसपैठ रखने वाले अभियंताओं का था. इसलिए उन्हें बचाये जाने के लिए शासन में उच्च पदों पर बैठे अफसरों ने सुप्रीम कोर्ट में तथ्यों को भी छुपाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी.बताया जाता है कि यदि तथ्यों को शासन नहीं छुपाता तो अदालत से राहत किसी भी कीमत पर नहीं मिल सकती थी.