Thursday, March 28, 2024
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राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता फिल्मकार ने गांव में किया फिल्म वर्कशॉप…

SI News Today

राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता श्रीराम डाल्टन असंभव को संभव करने में यकीन रखने वाले फिल्मकार हैं। उनकी फिल्म “द लॉस्ट बहरूपिया” को 2013 की सर्वश्रेष्ठ शॉर्ट फिल्म का संयुक्त पुरस्कार मिला था। झारखंड के रहने वाले डाल्टनगंज के रहने वाले श्रीराम डाल्टन पिछले दो दशकों से मायानगरी मुंबई में रह रहे हैं लेकिन वो सिनेमा की चमकीली दुनिया में जाने के बाद भी अपनी जड़ों को नहीं भूले हैं। डाल्टन झारखंड के नेतरहाट में एक अनूठा प्रयोग कर रहे हैं। उन्होंने नेतरहाट फिल्म इंस्टीट्यूट की स्थापना की है जिसके तहत स्थानीय युवाओं को फिल्म निर्माण की बारकियां सिखायी जाती हैं।

डाल्टन कई हमख्याल कलाकारों के साथ मिलकर किसी चुनिंदा थीम पर एक हफ्ते की वर्कशॉप करते हैं। इस बार की थीम थी “जंगल” और पिछले बार की थीम ती “पानी” था और अगले साल उनका विषय “जमीन” होगा। डाल्टन ने इस साल भी एक हफ्ते की वर्कशॉप का आयोजन किया। उन्होंने वर्कशॉप के अपना अनुभव कलमबद्ध किया है। आगे उन्हीं के शब्दों में पढ़िए कि झारखंड के जंगल में फिल्म वर्कशॉप उन्होंने कैसे आयोजित की और इसका हासिल क्या रहा।

श्रीराम डाल्टन
25 जुलाई 2017 को जब हम नेतरहाट के लिए रवाना हुए तो 50 किलोमीटर पहले से ही घाटी में घनघोर कोहरे ने हमारा स्वागत किया। एक तरफ़ पहाड़ तो दूसरी तरफ़ खाई और दो क़दम की दूरी पर भी कुछ नहीं दिख रहा था। पर, हम धीरे-धीरे चलते रहे। और जब हम नेतराहट पहुँचे तो देखा घनघोर बारिश हो रही थी। हमें पता चला की पिछले तीन दिनो से ऐसी ही ज़बरदस्त बारिश हो रही है। कई जगह पेड़ टूटे थे, कई जगह तार टूटे थे तो कई जगह पूल भी बह चुके थे। झारखंड के सबसे ऊँचे पहाड़ और घने जंगल की बारिश का अंदाज़ा था हमें। हम जब वर्कशॉप का डेट निर्धारित कर रहे थे तो हमको पता था कि इसबार हमें बहुत चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।

कई लोगों ने कहा कि “अरे!! इस समय तो बहुत बारिश होगी!!” पर हम पानी का सम्बंध जंगल से देखने और दिखाने के लिए इस मुसीबत के लिए मन बना चुके थे। पिछले वर्क्शाप में जब हमने डेट निर्धारित किया था तब मई की लहक गर्मी को हमने चुना था। देखा जाए तो गर्मी ज़्यादा चुनौतीपूर्ण है बारिश के बनिस्पत। गर्मी में आपका दिल-दिमाग़ काम नहीं करता, आपकी ऊर्जा बेवजह नष्ट हो जाती है। ख़ैर, भयंकर गरम दिनों के बाद तमाम आने वाली परेशानियों के बावजूद हमने घनघोर बारिश चुना।

तो वैसी ही बारिश लगातार तीन दिनो तक आगे भी होती रही और पूरे वर्कशॉप को चैलेंजिंग कर दिया पर, सब चलता रहा और बड़े उत्साह से वर्क्शाप शुरू हुआ। लगभग सारे नए पार्टिसिपेंट , गेस्ट और टीम मेम्बर मिला के 80 लोगों की संख्या नेतरहाट पहुँच गयी। पूरी टीम चार अलग-अलग जगहों पर ठहरी हुई थी। सभी लोगों के सहयोग से जिसमें गाँव वाले, नेतरहाट पंचायत के लोग, नेतरहाट आवासीए विद्यालय प्रशासन, लातेहार प्रशासन से जुड़े स्थानीय अधिकारियं की मदद से ये संभव हो पाया।

सभी लोगों के सहयोग से नेतरहाट में जो बेहतर संसाधान उपलब्ध था, वो सभी नेतरहाट फिल्म स्कूल (एनएफआई) को उपलब्ध कराया गया। वर्क्शाप के दौरान हमलोगों ने एक फ़ीचर फ़िल्म भी किया जिसके राइटर एके पंकजजी हैं और स्क्रीनप्ले और डायलोग की ज़िम्मेदारी दुष्यंत जी को दिया गया था। दुष्यंत जी अपनी ज़िम्मेदारी को अंजाम तक पहुँचाने के लिए एक हफ़्ता पहले राँची पहुँचे और पंकज जी और हमारी टीम के साथ कई रातें डिस्कशन में गुज़ारी । पंकज जी के साथ कभी-कभी स्क्रिप्ट को लेकर मोहब्बताना बहस की वजह से दोनो के माथे पर आए शिकन को एक कप चाय से दूर करनी पड़ती थी जो कि हमारे लिए आसान भी था, फिर दोनो के आपसी समझौते से जो बात निकल कर आती उसे लिख लिया जाता और आख़िरकार हमारे हाथ एक बेहतरीन स्क्रिप्ट लगी।

वर्कशॉप की शुरूवात मिलिंद उके जी ने अपने हाथो में ली और काफ़ी सिस्टेमैटिक तरीक़े से सभी प्रतिभागियों की कक्षाएं उन्होंने शुरू की। छह दिनों तक फ़िल्म मेकिंग के कंप्लीट ग्रामर, सम्भावनाए, विस्तार से ले कर फ़िल्म निर्माण की प्रक्रिया और तकनीक समझते हुए प्रतिभागी अपनी-अपनी कहानियों पर काम करने लगे। साथ में मिलिंद उके ने एक फ़िल्म अपने मेंटोरशिप में ली थी जिसको उन्होने बड़े कम समय में और बहूत सुंदर तरीक़े से पूरा किया। चार नए प्रतिभागियों ने बख़ूबी उस फ़िल्म को मिलिंद जी के सानिध्य में निर्देशित किया । मिलिंद उके पाँच दिन यहाँ बिताए और 31 जुलाई को वापस मुंबई को लौट गये।

प्रतिभागियों में काफ़ी उत्साह था और इसी दौरान विभा रानी 25 जुलाई को नेतारहट पहुँची और 30 को वापस मुंबई लौट गई। विभा दी ने थिएटर की बारिकियाँ और एस्थेटिक ऑफ एक्टिंग पर काम किया और प्रतिभागियों को एक्टिंग की बुनियादी कक्षाएं दीं। उन्होंने नौटंकी शैली और ट्रेडिशनल गारी-गीत का मंचन भी किया। साथ ही साथ विभा दी ने एनएफवाय वर्कशॉप में बन रही एक फुल लेंथ फीचर फ़िल्म बलेमा के कलाकारों को ट्रेनिंग भी दिया। जो कि नेतरहाट के एक छोटे से गाँव ताहेर के रहने वाले बाल कलाकार थे । जिन्होंने अब तक टेलिविज़न भी नहीं देखा, जिनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति बहूत ही कमज़ोर रही है।

पांच किलोमटीर घाटी मैं पैदल नीचे उतरना तो किसी भी हट्टे -कट्टे लोगों के लिए आसान बात है पर, वापस ऊपर चढ़ाई कर के लौटने में अच्छे-अच्छे लोगों की सांसें फूल जाती है, पर विभा दी इन सब चीज़ों की परवाह किये बिना घाटी में नीचे रोज़ उतर कर सभी लोकेशन्स मैं बड़े आराम से पहुँच जाती और आदिवासी कलाकारों को ट्रेंड करतीं। जब मिलिंद उके और विभा दी वापस गए तब तक एक फ़िल्म बन चुकी थी और बाक़ी फ़िल्मों पे टीम मेम्बर लग गए थे। और बिशारद वर्क्शाप के पहले दिन सभी प्रतिभागियों के परिचय के बाद उनके फ़िज़िकल ऐक्टिंग क्लास पे काम किया और पूरे वर्क्शाप को बख़ूबी अपने अनुभव से लाभान्वित किया। बिशारद नेपाल से इतनी दूर नेतारहट वर्क्शाप के लिए अपना क़ीमती समय निकाल के वर्क्शाप को अपना पूरा वक़्त दिया।

और फिर वर्क्शाप के दौरान एक अगस्त को नितिन चंद्रा वर्कशॉप के लिए मुंबई से राँची और फिर नेतरहाट के लिए निकल चुके थे । हालाँकि रास्ते में पेड़ गिरने के कारण उन्हें एक दिन व्यर्थ राँची रुकना पड़ा और दो अगस्त को नितिन जी नेतरहाट पहुँच गए और आते ही वर्कशॉप में आए सारे प्रतिभागियों को फ़िल्म मेकिंग कि जानकारी दिया । नितिन जी ने फ़िल्म मेकिंग में होने वाली तमाम पैरामीटर्स पर जैसे की प्री-प्रोडक्शन, मूवी प्रोडक्शन, पोस्ट प्रोडक्शन और फ़िल्म के मार्केटिंग स्ट्रेटिजी पे एक एक महत्वपूर्ण जानकारियों को प्रतिभागियों से साझा किया और बहूत ही कम समय में सभी कक्षाओँ को अच्छे तरीक़े से ख़त्म किया। साथ ही नितिन जी ने प्रतिभागियों के साथ मिल कर दो शॉट फ़िल्म अपने सानिध्य में नए प्रतिभागियों के निर्देशन में बनाई।

और इन सभी चीज़ों के बीच एक काम और हुआ जो कि नेतारहट फिल्म इंस्टीट्यूट के लिए बहूत महत्वपूर्ण था और वो था एसएफआई के लिए एक पहचान चिन्ह बनाना जो कि श्रीलंका से आए बहुत ही ख़ास व्यक्ति प्रगीत मनोहंसा जो कि पेशे से एक शिल्पकार हैं, जिनकी ख़ासियत लोहे के बेकार चीज़ों को बिना उसके फ़ॉर्म को तोड़े-मरोड़े आर्टवर्क करते हैं। हालाँकि श्रीलंका से निकल के बंगलोर पहुँचे फिर किसी कारण उनकी फ्लाइट मिस हो गई और नई जगह नो कनेक्टिव होने की वजह से वो वापस लौट गए, पर वो दुबारा टिकट करा के आखिरकार राँची 23 जुलाई को पहुँच गए। और वो पूरी टीम के साथ नेतारहट 25 को आते ही एक जेसीबी मशीन को काट कर एक कलाकृति तैयार किए। जिसकी ऊचाई 10 फीट और वज़न आठ क्विंटल है और ये कलाकृति पुराने फ़िल्म कैमरे की तरह दिखती है। जो एनएफआई को एक अपनी पहचान देगा। धन्यवाद है प्रगीत को जो दूसरे देश से इतनी दूर यहाँ आकार एनएफआई के लिए अपना क़ीमती समय दिया और एनएफआई को अपनी तरफ़ से एक भेंट प्रदान किया।

इस बार टीम शुरू से ही दो हिस्सों में बाँट दी गयी थी। एक टीम फूल-लेंथ फ़िल्म “बालेमा” के लिए श्रीराम डाल्टन के नेतृत्व में लग गयी बाक़ी के प्रतिभागी मिलिंद उके, विभा रानी, दुष्यंत, प्रगीत मनोहँसा, मेघा श्रीराम डाल्टन और नितिन नीरा चंद्रा के साथ लग गए। “बालेमा” टीम से दो नए कैमरा मैन जुड़े नकुल गायकवाड और राजेश सिंह। जहाँ नकुल ने प्राग फ़िल्म स्कूल से अपनी सिनेमायी ट्रेंनिंग ली है वहीं राजेश फ़ाइनआर्ट के पेंटर हैं । कई महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय प्रोजेक्ट किया है, दोनों दिखने में जितना सौफ़िस्टिकेटेड हैं उतना ही अपने काम में ईमानदार और मेहनती हैं, दोनो कूल ड्यूड हैं जो कि आख़री तक ही पता चलता है।

रोज़ सुबह भारी साजो-सामान लेकर जब हम घाटी उतरते थे तो लौटते वक़्त यक़ीन नहीं होता था कि कल हम वापस यहाँ आएँगे पर हम रोज़ नई उमंग के साथ जाते रहे और उतना ही बल्कि उससे ज़्यादा टूट कर आते रहे । ऐसे ही जद्दो -जहद में हमने शूट ख़त्म किया और अब एडिट पे लगे हुवे हैं। एडिटर अखिल राज अपना पूरा एनर्जी लगाए हुवे है उनका दिन और रात सब बराबर हो चुका है जिसमें उसका पूरा साथ मनीष राज दे रहें है। गुजरात से आशीष पीठिया ने असोसियेट डिरेक्टर के बतौर कमान सम्भाला, असम से परीक्षित, गुमला, लोहारदग्गा और राँची से पवन बाड़ा, हैरी बारला, संजय मुंडा और वसीम रांचवी ने डिरेक्शन में असिस्ट किया।

जंगल वर्कशॉप की फूल-लेंथ फ़िल्म जिसका तात्कालिक टाइटल “बालेमा” है। जिसकी सारी कास्टिंग लोकल आदिवासियों की ही की गयी है जिसमें टूनि नगेसिया किसान, मतरू नगेसिया किसान, अमिता खाखा और जस्टिन लकड़ा हैं। पेशे से कोई कलाकार नहीं हैं पर, इन्होंने जो काम किया है वो अच्छे -अच्छे कलाकार नहीं कर सकते थे, यहाँ के आदिवासी ही कर सकते थे। सभी कलाकारों का चुनाव भी ग़ज़ब ही तरीक़े से हुआ है। जैसे मतरू बाबा पान दुकान पर भीगते हुए दुष्यंत और श्रीराम को दिखे और दोनो ने ही मन ही मन उनमें अपने कहानी का किरदार “डोकरा बूढ़ा” को चुन लिया। और जब बाबा से बात हुई तो वो एक मिनट भी बीना झिझके तैयार हो गए और उन्होंने पूरी फ़िल्म मज़बूती से निबटायी।

“बालेमा” के लिए हमने कई कास्टिंग देखी पर चैन तब मिला श्रीराम को जब टूनी किसान नगेसिया मिली। ताहीर गाँव में गाड़ी नहीं उतरती। कुछ बिरले ड्राइवर ही हिम्मत कर सकते हैं। नेतरहाट पहाड़ से सटे ठीक पाँच सौ फ़ीट नीचे है ताहीर गाँव। वर्क्शाप शुरू होने से पहले टीम एक बार सब इंतेजाम करने नेतरहाट गयी थी और मतरू बाबा टीम को नेतरहाट बाज़ार में ही मिले थे। तब मतरू बाबा से तय हुआ था कि हम २५ तारीख़ को आएँगे और वो ताहीर गाँव में मिलेंगे। और जब हम निर्धारित समय पर पहुँचे तो पता चला कि ताहीर गाँव तक गाड़ी नहीं जाती। कई साल पहले एकबार रोड बना था पर मतरू बाबा के अनुसार ठिकेदार ने सही काम नहीं किया। सुना कि बुलेरो उतर जाती है। तो श्रीराम ने छोटी ट्रक ताहीर गाँव में उतार दी। नीचे पहुँच कर मतरू बाबा का घर ढूँढा गया और अपनी परेशानी भी बताई गयी। मतरू बाबा ने हमारी ज़रूरत समझी और कुछ बच्चों को इक्कठा किया। अब जिस गाँव में बिजली नहीं वहाँ हम क्या फ़िल्म के बारे में बात करते!! समझाते-समझाते किसी ने चून लिए गए बच्चों को धीरे से कान में कह दिया कि “ले जाकर बेच देंगे।” उसके बाद तो सब बच्चे चारों तरफ़ भागने लगे। पहले तो लगा कि लौट आएँगे पर कोई नहीं आया।

जब टीम के लोग खेत में बच्चों के पीछे दौड़-भाग रहे थे तो तीन छोटी-छोटी बारह-तेरह साल की लड़कियाँ सुबह-सुबह सज-धज के रोपनी के लिए निकली थीं और पूरे तमाशे को समझने के लिए भीड़ में खड़ी थी।जब टूनी ने मामला समझा तो उसने इसे झिझकते हुए स्वीकार कर लिया। हालाँकि रोपनी के लिए सभी गाँव वाले बारी-बारी से एक-दूसरे के खेत में मदद करते हैं। किसी कारण से अगर आप सहयोग कर पाने में असमर्थ हैं तो आपको अपने बदले किसी आदमी को खेत में काम लगाना पड़ेगा या पैसे देने पड़ेंगे!! श्रीराम ने दोबारा मौक़ा गँवाना उचित नहीं समझा और सभी होने वाले नुक़सान को सोल्व कर के गाँव के लोगों को कॉन्फ़िडेन्स में लिया। बच्चों के बीच अभी भी खसुर-फुसूर चल ही रहा था। अब और देर होता तो पता नहीं क्या मामला लटक जाए तो श्रीराम ने लोगों को गाड़ी में बिठा के जल्द से जल्द ऊपर निकलना उचित समझा। पर, ठीक मौक़े पे आख़री दूसरी चढ़ाई पर थ्री-सेलेंडर गाड़ी की साँस फूल गयी। एक तो चढ़ाई ऊपर से दोनो तरफ़ खाई।। बार-बार पीछे; मतलब नीचे उतार के स्पीड बढ़ा कर चार बार चढ़ाने की कोशिश की गयी। नहीं चढ़ा। लड़कियों का उत्साह कम हो इससे पहले गाड़ी को टीम के हवाले कर के आगे बढ़ लिया गया। और सीधा शूटिंग स्टार्ट किया गया। दो-तीन घंटे के अंदर सभी बच्चे शूटिंग में मगन हो गए थे। टूनी और उसकी दोस्त रजवंती ने इसको चैलेंज की तरह लिया और क्या ख़ूब किया!!

जस्टिन लकड़ा को खेत में हल चलाते चम्पा, कूरूँद से उठाया गया। फ़ोन-नेट्वर्क उनके लिये दूसरी दुनिया की बातें हैं। जस्टिन के गाँव तक भी सड़क नहीं पहुँचती। आईएसएम का ट्रक ज़िंदाबाद था जो 17-18 दिन से एनएफआई का मालवाहक बना हुआ था और अक्सर कहीं फँसता था जिसको हमेसा संख्याबल से निकाल लिया जाता था। कीचड़ से सना हुआ जस्टिन जिन कपड़ों में था उन्ही कपड़ों में माँ और अपनी नयी नवेली पत्नी को सारा काम समझा कर साथ में हो लिया। जस्टिन लकड़ा जितने मज़बूत किसान हैं उतने ही गम्भीर छात्र हैं। कडूख भाषा को लेकर इनका प्रेम ऐसा है कि कई जगह पर सीन को समझ के बातों को कडूख गीत में रखने की सलाह देते और ये किया भी गया । बस ये जान लीजिए कि सादरी भाषा की फ़िल्म में आपको कडूख २-३ गीत तो ज़रूर सुनने को मिलेंगे।

राजीव गुप्ता की नज़र हमारी गतिविधियों पर कब से लगी हुयी थी। इनको हमेसा लगता रहा कि कैसे वो हमारे साथ जुड़ें, कैसे हमारी मदद करें!! तो एक दिन राँची में उन्होंने श्रीराम को घर पे आमंत्रित किया। ये बहुत सार्थक मुलाक़ात थी। सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर राजीव जी ने जब समझा की “जंगल” वर्क्शाप शुरू होने वाला है और हमको मदद चाहिए तो उन्होंने एक बंदे को फ़ोन किया की आप जहाँ कहीं भी हैं पाँच मिनट में घर पहुँचिये, आपके जैसे ही एक आदमी से मिलाना है।

आईआईटी खड़गपुर से गणित और कम्प्यूटर से इंजीनियरिंग कर के अमेरिका, इसराइल में अपना योगदान दे कर भोपाल में मज़बूत शुरूवात कर के अभी झारखंड में “पानी” विषय पर बहुत गम्भीरता से काम कर रहे हैं। साकेत का कला और विज्ञान के क्षेत्र में ग़ज़ब विजन है। कई सपने इनके पलकों पे बैठे रहते हैं जिसको एक-एक कर ये व्यवस्थित करते जा रहे हैं । महुवाडार के रहने वाले साकेत को एनएफआई के पिछले तमाम प्रयासों का पता था और वे बहुत सर्प्राइज़ थे कि कोई कैसे महुवाडार-नेतरहाट में फ़िल्म कर सकता है। हालाँकि ये सपना बचपन से उनके अंदर बेचैनी का काम कर रहा था। और जब वर्क्शाप की बात आयी तो पाँच मिनट में वर्क्शाप से सम्बंधित ज़रूरतों की लिस्ट लेकर बैठ गए। और सबकुछ मैनेज कर दिया। साकेत बहुत कमाल के राइटर हैं और आईएसएम रांची के वाइस चेयरमन हैं। इस वर्कशॉप के क्रिएटिव डायरेक्टर भी हैं।

16 अगस्त को वर्कशॉप पूरी हुई। आखिरी दिन एनएफआई स्कल्प्टर का उद्घाटन हुआ। वर्कशॉप के दौरान सबकुछ अच्छा-अच्छा नहीं रहा। पर बुरा क्या रहा उससे मैं आपको दुखी क्यूँ करूँ! इसका अच्छा पहलू ये रहा कि तक़रीबन पचास-साठ लोगों ने फ़िल्म निर्माण के लिए आत्मविश्वास पैदा किया। ज़रूरी नहीं कि सभी फ़िल्म बनायें। पर वे करना चाहें तो उन्हें कोई कारण रोक नहीं सकता। हमारे पिछले साल के ‘पानी’ वर्क्शाप से जुड़े कई नए फ़िल्म मेकरों ने अपनी फूल-लेंथ फ़िल्म शुरू कर दीं हैं या कर रहे हैं। वर्क्शाप से जुड़े सभी लोगों को धन्यवाद और शुभकामनाएँ।। एनएफआई के “जंगल वर्कशॉप” के प्रस्तुतकर्ता आईएसएम रांची और होलीबुल एंटरटेनमेंट को धन्यवाद है। और हमारे मीडिया पार्ट्नर 92.7 बिग एफएम को धन्यवाद है।

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