सुशासन बाबू के नाम से मशहूर बाबू नीतीश कुमार जी ने NDA के साथ मिलकर बिहार की नैया 2005 से 2014 तक लगातार खेयी। उनके राजनीतिक जीवन के सबसे बड़े प्रतिद्वंदी लालू प्रसाद यादव रहे और फिलहाल फिर से हो गए।आखिर उनकी कौन सी मजबूरी रही जो उन्होंने इस समय की सबसे बड़ी शक्ति का साथ छोड़ कर अपना रास्ता अलग किया था। सुशासन बाबू अपने लंबे राजनीतिक सफर में कड़े फैसले और नई व्यवस्था के लिए जाने जाते हैं चाहे वो रेल मंत्री होते हुए तत्काल टिकट की सुविधा हो या बिहार में शराब बंदी।शराब बंदी शुशासन बाबू का एक ऐसा फैसला जिसका विरोध विपक्ष के साथ साथ उनके ही पार्टी के नेताओं ने भी किया लेकिन तमाम विरोध के बाद भी बाबू नीतीश अपने फैसले पर अडिग रहे जो की उनके राजनीतिक सफर में एक मील का पत्थर साबित हो रहा है। साल 2014 लोकसभा चुनाव भाजपा पार्टी में प्रधानमंत्री पद के दावेदारी को लेकर रार बढ़ती दिख रही थी उसी बीच नीतीश कुमार ने 16 जून 2013 को एक चौंका देने वाला फैसला सुनाया जिसमे उन्होंने NDA के साथ 17 साल पुराना गठबंधन तोड़ दिया।कयास ये लगाए जाने लगे कि नीतीश अब दिल्ली जाने का रास्ता ढूंढ रहे हैं, जो कि NDA गठबंधन के साथ रह कर असंभव प्रतीत हो रहा है। और नीतीश कुमार ने स्पष्ट तौर पर नरेंद्र मोदी को भारत का प्रधानमंत्री बनाये जाने का विरोध किया।लोकसभा में बिहार में असफल होने के बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया जो कि उनके लिए ही गलत साबित होता दिखा। NDA से अलग होने का फैसला नीतीश बाबू ने अडिग बताया और यह भी कहा कि नीतीश कुमार कम्युनल गुंडों के साथ नहीं खड़े हो सकते।बिहार 2015 चुनाव में नीतीश कुमार जी ने सरकार बनाने के लिए अपने धुरविरोधी राजनीतिक शत्रु और चारा घोटाला के प्रमुख आरोपी लालू प्रसाद के साथ बिहार में सरकार बनाई और अपने राजनीतिक जीवन के तमाम आदर्शों को ताक पर रख कर अपने शत्रु को मात्र एक सपने के लिए गले लगाया। शुशासन बाबू ने कांग्रेस के कमज़ोर प्रतिनिधित्व का फायदा उठाते हुए, महागठबंधन का नेता प्रमुख बन कर खुद को भारत का प्रधानमंत्री बनाने का सपना देख डाला। लेकिन मात्र दो साल में ही लालू परिवार पर घोटालो का घंटा फिर से बजने लगा और भाजपा की जटिल कूटनीतियों के आगे बाबू जी ने घुटने टेक दिए। अब नीतीश कुमार अपने भविष्य के लिए वर्तमान नहीं खोना चाहते थे और लालू के परिवार ने उनको एक मौका फिर से दिया।भाजपा को राज्यसभा में मजबूत होने के लिए नीतीश की अत्यंत आवश्यकता दिखने लगी और इस मौके का पूरा लाभ भाजपा व नीतीश को दिखने लगा और नीतीश कुमार ने अपने शत्रु से राजनीतिक मित्र बने लालू को अपना परमशत्रु फिर से घोषित किया जिससे एक बात तो सामने है कि राजनीति में कोई अपना पराया नही होता और स्वाभिमान और आदर्श तो मौके की बात है जो कि नीतीश बाबू के साथ भी देखने को मिली।क्या नीतीश कुमार में दूरदर्शिता की कमी है जिससे वह यह भांप नहीं पाए कि सरकार सुलभ किसके साथ है या अपनी राजनीति को राष्ट्रीय स्तर पर चमकाने का एक असफल प्रयास उनके द्वारा किया गया। बिहार में NDA सरकार बनते ही राजनीतिक सूरमाओं के बड़े बोल पेपरों और न्यूज़ चैनलों की हैडलाइन बनती दिखी इस सारे ड्रामे को नाम दिया गया “घरवापसी”। आखिर राजनीति है क्या वो ये ही जाने 2014 के कम्युनल गुंडे 2017 में सेक्युलर संत कब बन गए ये तो नीतीश बाबू ही बताएंगे। इतिहास गवाह है कि अगर विरोध कमज़ोर हो तो नेतृत्व निरंकुश हो जाता है,कुल मिलाकर नीतीश एकमात्र विपक्ष के ऐसे नेता थे जिनको नरेंद्र मोदी का शशक्त प्रतिद्वंदी माना जा सकता है और फिलहाल विपक्ष में ऐसा कोई प्रतिद्वंदी दिख नहीं रहा ,जो कि स्वस्थ लोकतंत्र के लिए एक खतरे की घंटी भी है। भाजपा ने बाबू को खुद से मिलाकर महागठबंधन की हवा निकाल दी है,बिहार में मिली हार का डर आज भी भाजपा को सता रहा था ।लेकिन इस कूटनीतिक जीत के बाद भाजपा ने एक राहत की सांस ली है। अब ममता दीदी को छोड़ दिया जाए तो फिलहाल तो किसी भी राज्य में भाजपा को चुनौती मिलती नहीं दिख रही है। यह कूटनीतिक जीत 2019 में भाजपा के लिए एक मजबूत बुनियाद से कम नहीं है। खैर जो भी कयास लगाए जाएं वो तो कम है लेकिन नीतीश बाबू के लिए एक लाईन तो बनती है कि “कुर्सी बची तो लाखों पाए लौट के बाबू घर को आये”। और जिन गुप्त हथियारों का उपयोग भाजपा ने इस गठबंधन को तुड़वाने के लिए किया है वो भी अप्रत्यक्ष रूप से सफल रहा लेकिन जनता से कुछ छुपता नहीं क्योंकि ये पब्लिक है ये सब जानती है। अब तो बाबू मौका पाकर घर को लपके हैं और तो और अपने परम शत्रु को जड़ से खत्म कर के आये हैं। और मोदी जी पर लट्टू होते दिख रहे हैं अब देखना यह है कि NDA में बाबू को मिल रही आज़ादी से बिहार की तकदीर कितना बदलती है।।
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the authorPushpendra Pratap singh
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