अपनी सरकार के तीन साल पूरा होने पर जश्न मना रहे हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के तमाम नेता। किसानों के कल्याण की भी खूब दुहाई दी जा रही है। पर उनकी आमदनी को दोगुना कर देने का आश्वासन नया है। चुनाव से पहले तो वादा अलग था कि उन्हेंं फसलों का लाभकारी दाम दिलाएंगे। यह वादा शायद ही पूरा हो पाए। फिलहाल चिंता की बात दूसरी है। मोदी किसानों के हितैषी होने की खुशफहमी पाल सकते हैं, पर किसान तो हर जगह गुस्से में ही दिख रहे हैं। महाराष्ट्र के किसान कब से सड़कों पर हैं। अब असंतोष की चिंगारी भाजपा के ही दूसरे राज्य मध्य प्रदेश तक पहुंच गई है। मालवा निमाड़ सहित तमाम जगहों पर सरकार से नाराज किसानों ने अपना दूध सड़कों पर बहा कर विरोध जताया। कई जगह आलू और प्याज सड़कों पर इस कदर फेंका कि यातायात ठप हो गया। पुलिस पर पथराव करने से भी नहीं हिचके गुस्साए किसान। शाजापुुर में तो पुलिस को लाठीचार्ज और आंसू गैस का इस्तेमाल करना पड़ा। इंदौर की सब्जी मंडी में कोई खरीदफरोख्त नहीं हो पाई। झाबुआ, मंदसौर, नीमच, उज्जैन, रतलाम, देवास व खंडवा हर जगह किसानों ने प्रदर्शन किए। गुरुवार को भड़की चिंगारी शुक्रवार और शनिवार को और तेज हुई। वाहनों में लगाने से भी नहीं रोक पाई किसानों को पुलिस। आखिर रविवार को सरकार ने किसानों के नुमाइंदों से वार्ता की। वार्ता का नतीजा सरकार की तरफ से तो सकारात्मक ही बताया गया, पर किसानों की प्रतिक्रिया सामने नहीं आ पाई। आंदोलन को धार देने में सोशल मीडिया का भी योगदान रहा। कांग्रेस ने अन्नदाता किसान के सड़क पर उतरने की नौबत को शिवराज चौहान सरकार की नाकामी से जोड़ा। साथ ही यह कह कर खिल्ली उड़ाई कि कृषि कर्मण पुरस्कार लेने वाले मुख्यमंत्री को लज्जित होना चाहिए। शिवराज चौहान की अपनी दलील आई। उत्पादन ज्यादा होने को उन्होंने किसान के वाजिब दाम न मिलने की शिकायत का मूल बताया। राष्ट्रीय किसान मजदूर संघ के अध्यक्ष शिव कुमार शर्मा ने भी किसानों के कर्ज माफ न होने और उनकी लगातार उपेक्षा को सरकार के उद्योगपति मोह से जोड़ दिया। भाजपाई इस जन आंदोलन के पीछे असामाजिक तत्त्वों का हाथ बता कर अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ने की कोशिश कर तो खूब रहे हैं, पर भूल रहे हैं कि अगले साल सूबे में विधानसभा चुनाव होंगे। ऐसे में महंगा पड़ सकता है किसानों का गुस्सा।
वजीर बस नाम के
उत्तराखंड की भाजपा सरकार में सब कुछ सही सलामत नहीं चल रहा है। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के कई मंत्री उनसे नाराज बताए जा रहे हैं। हालांकि रावत के करीबियों पर भरोसा करें तो ऐसी नाराजगी की उन्हें कतई परवाह नहीं। वे मंत्रियों को मनमानी की छूट कतई देने वाले नहीं। सख्त रवैया छोड़ने का मतलब भाजपा सरकार का कांग्रेसीकरण कहलाएगा। फिर हरीश रावत और उनकी सरकार में फर्क ही क्या बचेगा? पाठकों को याद दिला दें कि भाजपा सरकार में चार मंत्री ऐसे हैं जो विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेसी थे। बहरहाल सुबोध उनियाल, हरक सिंह रावत, सतपाल महाराज और यशपाल आर्य को भाजपा की चाल-ढाल के हिसाब से एडजस्ट करने में तकलीफ तो हो ही रही है। सतपाल महाराज तो मंत्रिमंडल की तीन बैठकों में ही नहीं पहुंचे। हरक सिंह और सुवोध उनियाल भी देर से पहुंच रहे हैं। त्रिवेंद्र सिंह रावत की चिंता दूसरी है। एक तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह का खौफ ऊपर से अपनी छवि को बेदाग बनाए रखने की चिंता। इसलिए अच्छे प्रशासक की छवि उभारने के मकसद से लगातार बैठकें कर हर विभाग की समीक्षा करते हैं। विभागों के सचिवों और अफसरों को सीधे निर्देश देने की नई परिपाटी शुरू कर दी है। जबकि मंत्रियों को ऐसी परिपाटी अपनी हैसियत में कटौती नजर आती है। नौकरशाही पर मुख्यमंत्री का खौफ बढ़ रहा है। मीडिया से फालतू संवाद करने की आदत नहीं डाली है। नौकरशाही में अपर मुख्य सचिव ओमप्रकाश सबसे बड़े सिपहसालार के तौर पर उभरे हैं। खंड़ूडी की सरकार में त्रिवेंद्र सिंह जब कृषि मंत्री हुआ करते थे तो ओम प्रकाश ही उनके विभाग के सचिव थे।
कौन बनेगा राष्ट्रपति
राष्ट्रपति चुनाव में अब ज्यादा वक्त नहीं बचा है। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों एक दूसरे का मुंह ताक रहे हैं। पर पत्ते अभी तक किसी ने भी नहीं खोले हैं। इसमें दो राय नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए अपना राष्ट्रपति चुनवाना कोई असंभव काम नहीं है। बहुत थोड़े मत ही जुगाड़ने हैं उन्हें। इसके उलट विपक्ष की एकता का अभी कोई भरोसा नहीं। याद कीजिए जब प्रणब मुखर्जी बने थे यूपीए सरकार के वक्त कांग्रेस की तरफ से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार तो ममता बनर्जी और मुलायम सिंह यादव दोनों ने ही बाकी दलों का भरोसा खोया था। ममता ने बाद में बंगाली मानुष के बहाने खुलकर दादा का समर्थन किया था। मुलायम सिंह यादव भी राजद, जद (एकी) और दूसरे दलों को गच्चा देकर एकता तोड़ने वाले नेता की छवि में उभरे थे। इस बार फिर ममता ही संभाल रही हैं विपक्ष के साझा उम्मीदवार को उतारने की कवायद की कमान। शुरू में विपक्ष की कोशिश थी कि प्रणब उम्मीदवार बनने के लिए राजी हो जाएं। दादा ने इनकार कर विपक्ष की मुश्किल बढ़ाई है। विपक्ष की तरफ से गोपालकृष्ण गांधी और मीरा कुमार के नामों पर विचार की खबरें आ रही हैं। पर नरेंद्र मोदी ने अभी तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं। इतना तय लग रहा है कि लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और सुषमा स्वराज पर दांव नहीं लगाएंगे मोदी। फिलहाल तो थावरचंद गहलौत, द्रौपदी मुर्मु और सुमित्रा महाजन के नाम ही चर्चा में तैर रहे हैं। पर पिछले कुछ दिनों में नया नाम उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक भी उड़ा है। नाईक को ब्राह्मण होने के नाते उम्मीदवार बनाया जा सकता है। उस सूरत में उपराष्ट्रपति के लिए दलित के रूप में गहलौत और मुर्मु व पिछड़े के रूप में बिहार के भाजपा सांसद हुकुमदेव नारायण देव में से एक का चयन संभव है। माना जा रहा है कि अपनी विदेश यात्रा से लौट कर अपने पत्ते खोल सकते हैं मोदी।
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