Friday, March 29, 2024
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राजनीतिः कालूपुर कांड की कड़ियां

SI News Today

हरियाणा के सोनीपत के कालूपुर गांव में युवती से नृशंस बलात्कार व हत्या की वारदात के बाद यह बहस तेज हो गई है कि क्या स्त्री की अस्मिता को तहस-नहस कर उसे एक जिंदा लाश बना देने वाले इस अपराध की सजा कड़ी कर दिए जाने का समाज में कोई गहरा या प्रभावी संदेश नहीं गया? क्या कड़ी सजा का प्रावधान भी इस अपराध के प्रति भय का संचार नहीं कर पाया? यह मुद्दा इस वारदात के साथ ही इसलिए उठा कि दो दिन पहले ही निर्भया मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया था, जिसमें उसने चारों आरोपियों की मौत की सजा बहाल रखी थी। निर्भया कांड के बाद ही वर्मा कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर केंद्र सरकार ने 2013 में बलात्कार व अन्य सभी प्रकार की यौनहिंसा के खिलाफ प्रावधान कड़े किए थे, जिसमें पीछा करना भी शामिल था। बहस शुरू करने वालों का मुख्य तर्क यह था कि सोनीपत के कालूपुर गांव में हुआ यह सामूहिक बलात्कार एक तरह से निर्भया मामले से भी ज्यादा क्रूर व नृशंस था। और इससे साफ है कि अपराधियों को सजा का डर नहीं है। बात तो ठीक है। अगर डर होता तो हर साल मात्र बलात्कार की वारदातों में दस हजार से ज्यादा की बढ़ोतरी न होती। तो फिर क्या किया जाए?

जवाब तलाशने से पहले आइए कालूपुर के इस अपराध के कारणों में झांका जाए। जिस युवती से बलात्कार हुआ वह दलित थी और बलात्कार का मुख्य आरोपी भी दलित था। तो यहां जातिगत ऊंच-नीच का मसला नहीं था। झगड़ा यह था कि युवक उससे शादी करना चाहता था, पर युवती राजी नहीं थी। काफी दबाव डालने पर भी वह राजी नहीं हुई। मां-बाप ने युवक के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट भी लिखाई। अब उनका दावा है कि पुलिस ने वह रिपोर्ट लिखी नहीं और पुलिस का कहना है कि शिकायत मौखिक थी। और बाद में तो उन्होंने दोनों पक्षों में समझौता हो जाने की बात भी कही थी। सच क्या है इसकी जांच के आदेश दे दिए गए हैं, पर अगर हम एक बार यह मान लें कि युवक ने समझौता कर लिया था तो इसे उसकी बदले की योजना का हिस्सा माना जा सकता है। उसने समय लिया, दोस्तों को जुटाया और पूरी तैयारी के बाद एक दिन लड़की को जबरन ले गया।

जहां तक पुलिस का सवाल है, अगर वह इस तरह के अपराधों के प्रति सचेत होती तो एक बार थाने में शिकायत, मौखिक ही सही, आ जाने के बाद वह उस पर नजर रखती। पर ऐसा नहीं हुआ। इसलिए जांच की रिपोर्ट चाहे जो आए, पुलिस अपनी लापरवाही के दोष से बरी नहीं हो सकती। उसका यह रवैया इस बात का गवाह है कि सजा के प्रावधानों के बावजूद हमारी पुलिस अपने काम के प्रति, यौनहिंसा व महिलाओं के खिलाफ होने वाले अन्य अपराधों के प्रति गंभीर व संवेदनशील नहीं हुई है। असल समस्या यही है। जिस दिन अपराधी को यह विश्वास हो जाएगा कि वह पुलिस को ‘मैनेज’ नहीं कर सकता उस दिन ऐसे अपराधों की संख्या स्वत: आधी रह जाएगी। पर उसे यह विश्वास दिलाएगा कौन? जहां तक युवक की बात है तो वहां मानसिकता वही पुरुषवादी सोच की है। ‘मेरी नहीं तो किसी की भी नहीं। ’ ‘मेरे साथ नहीं रहना चाहती तो देख फिर मैं तेरा क्या हश्र करता हूं।’ गुस्से व अपमान से पागल हुए उस युवक ने दिखा दिया कि वह उसका क्या कर सकता है। पकड़े जाने पर अपने अपराध को मान भी लिया। जेल में बैठा अब वह मौत की सजा के भय से आतंकित है या फिर अब भी अपने किए पर शान बघार रहा है यह पता नहीं चला। अपराध के पीछे की पूरी मानसिकता का भी अभी पूछताछ के बाद ही पता चल पाएगा, पर अभी तक जो सामने आया है उससे यह साफ है कि अब भी महिला की अपनी इच्छा या सोच की कोई कीमत नहीं है।

इकतरफा आकर्षण को पसंद या प्यार का नाम देकर युवतियों को शादी करने या साथ चलने के लिए मजबूर करने और नहीं मानने पर उस पर तेजाब डाल देने या फिर दोस्तों को साथ लेकर बलात्कार करने की वारदातें लगातार बढ़ी हैं। यह बताता है कि लड़कियां बदली हैं पर लड़के नहीं। बदलते समय ने उन्हें यह नहीं सिखाया कि सामने खड़ी लड़की की अपनी भी कोई इच्छा है और मानवीय संबंधों व सामाजिकता दोनों का ही तकाजा है कि उसका सम्मान किया जाए। सामाजिकता व शिष्टाचार के अलावा व्यक्ति का सम्मान दो कारणों से किया जाता है। श्रद्धा या भय। जिस तरह दो-तीन साल की बच्ची से लेकर साठ साल की बुजुर्ग महिला तक को पिता, भाई, पड़ोसी, दोस्त हर कोई अपनी हवस का शिकार बना रहा है उससे जाहिर है कि उम्र व संबंधों की मर्यादा और स्त्री की मर्यादा का खयाल व्यवहार में हमारे समाज में खत्म हो चुका है। ऐसे में शिष्टाचार या सामाजिकता के भी कोई मायने नहीं रह जाते। इन दोनों तत्त्वों के अभाव में श्रद्धा कहां से उपजेगी? बचता है भय। और वह कैसे होगा? उसके लिए तो लड़कियों को बचपन से ही तैयार करना पड़ेगा।

बातें तो बहुत होती हैं, पर क्या वास्तव में सामाजिक व प्रशासनिक स्तर पर एक भी कार्यक्रम ऐसा हाथ में लिया गया है जिसके तहत बच्चियों को बचपन से ही आत्मरक्षा के गुर सिखाए जाएं? बच्चियों को छोड़िए, किशोरियों व युवतियों के लिए भी ऐसा कोई कार्यक्रम नहीं है। बहुत हो-हल्ला होने पर पुलिस कभी-कभी इक्का-दुक्का कार्यक्रम स्कूल-कॉलेज में कर लेती है मगर स्त्री के जीवन की अहम जरूरत मान कर इसे परिवारों में पहुंचाने की अभी कल्पना तक नहीं की गई। कैसे की जाएगी? सरकार सारी शिक्षा का निजीकरण व व्यवसायीकरण करती जा रही है। सरकारी स्कूलों तक में स्काउट गाइड और एनसीसी खत्म कर दिए गए। तो आत्मरक्षा के गुर, वह भी बचपन से, सिखाने की व्यवस्था कौन करेगा? मेरे पास आज जो कुछ भी अच्छा है उसका एक बड़ा हिस्सा मुझे पहले बुलबुल, गाइड और रेंजर और फिर एनसीसी से मिला। स्कूली जीवन में संयम, नियम, अनुशासन और जोखिम उठाने का जज्बा इन्हीं से आया। जंगल में टेंट लगाना और जंगली जानवरों से सुरक्षा करना इन्हीं के कैंपों में सीखा और ट्रैकिंग व मार्चपास्ट ने हमारे भीतर भर दिया कि अपने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण दूसरे को बचाना है। और इस देश को बचाने का मतलब यह नहीं कि सामने कोई पाकिस्तान जैसा दुश्मन मौजूद है।

देश को बचाने का मतलब इसकी हर संपदा- मिट्टी, जल, जंगल, जमीन, पशु-पक्षी, जीव-जंतु और इंसान- को बचाना है। अपने हर काम से इसका गौरव बढ़ाना है। स्कूली शिक्षा में अनिवार्य पाठ्यक्रम के अलावा ये वो कोर्स थे जो बचपन से ही व्यक्ति को अनुशासित व मर्यादित कर उसके बहुमुखी व्यक्तित्व का विकास करते थे। बतौर गाइड जो रीफनॉट लगाई तो आज तक जैसे वही जीवन को संचालित कर रही है। आज के स्कूली बच्चों के पास वह नहीं है। लड़के-लड़कियों, दोनों को ही उसके आनंद से वंचित कर दिया गया है।
स्कूल चाहे निजी हो या सरकारी, स्काउट गाइड को बच्चों की शिक्षा का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाए। पहले स्कूलों में खेल का एक पीरियड होता था, उसे भी अनिवार्य किया जाए और उसी में हफ्ते के तीन दिन लड़कियों के लिए आत्मरक्षा के गुर सिखाने के लिए रखे जाएं। सरकार चाहे तो अगले शिक्षा सत्र से इसे लागू कर सकती है।

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