Wednesday, April 30, 2025
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40 साल पहले मेजर ध्यानचंद की मौजूदगी में लहराया था परचम…

SI News Today

जब भागलपुर के एक होनहार बालक ने ध्यानचंद का ध्यान चंद मिनटों के लिए अपनी ओर खींच लिया। यह बात 15 जनवरी 1978 की है। मौका था अखिल भारतीय अंतर विश्वविद्यालय मलखम व जिम्नास्टिक प्रतियोगता का। यह आयोजन बुंदेलखंड विश्वविद्यालय ने झांसी के शारीरिक प्रशिक्षण संस्थान में 13 से 15 जनवरी 1978 के बीच किया था, जिसमें भागलपुर विश्वविद्यालय की ओर से शिरकत करने सात छात्र गए थे। पवन कुमार पोद्दार, जगदीश प्रसाद शर्मा, बनवारी लाल वर्मा, रघुनंदन भिवानीवाला, मदनमोहन शर्मा, विजय कुमार बाजोरिया और ज्ञानप्रकाश सिन्हा।

इस टीम के मैनेजर थे एपी सहाय। यों करतब तो सभी ने दिखाए मगर ठिगने और पतली कद-काठी के मासूम से दिखने वाले बालक पवन कुमार पोद्दार के करतब ने खचाखच भरे स्टेडियम की तालियां ही नहीं बटोरीं बल्कि मंच पर बैठे हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद का बर्बस दिल मोह लिया। ध्यानचंद ने पवन को मंच पर नजदीक बुलाकर उनकी पीठ थपथपाई, अपना ऑटोग्राफ दिया और साथ में फोटो भी खिंचवाई।

मेजर ध्यानचंद का इस तरह के समारोह में बतौर खास मेहमान शरीक होने का शायद यह आखिरी समारोह था। उनका निधन 3 दिसंबर 1979 को हो गया था। 29 अगस्त को उनकी जयंती है। भारत सरकार ने उनकी याद में 29 अगस्त को राष्ट्रीय खेल दिवस घोषित कर दिया। भागलपुर के छात्रों के करतब के बखान के साथ आज मरते मलखम के खेल का जिक्र तो करेंगे ही पर मेजर ध्यानचंद के राष्ट्रीय खेल हॉकी में दिए योगदान को कतई नहीं भुलाया जा सकता है। उन्हें याद कर हम गौरवान्वित भी महसूस करते हैं।

इस अखिल भारतीय प्रतियोगिता में पश्चिम के कई विश्वविद्यालयों ने हिस्सा लिया था। मगर पूर्वी भारत की ओर से भागलपुर विश्वविद्यालय इकलौता था जिसने तीसरा स्थान पाकर नाम रोशन किया था। उस वक्त का वह होनहार छात्र आज तिलकामांझी भागलपुर विश्वविधालय के एमबीए संकाय का निदेशक है। डा. पवन कुमार पोद्दार शैक्षणिक, सामाजिक और खेल के क्षेत्र में एक बड़ा नाम हैं। उनके नेतृत्व में तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय राष्ट्रीय स्तर पर झंडे गाड़ चुकी है। हाल ही में स्मार्ट सिटी भागलपुर के लिए बनी नई कमिटी में उन्हें सदस्य मनोनीत किया गया है।

यहां यह बताना जरूरी है कि तकरीबन 200 साल पहले बल्लभ भट्ट देवधर ने महाराज शिवाजी को मलखम खेल की ओर मुख़ातिब किया था। शारीरिक संपुष्टता, स्फूर्ति व विकास जैसी खासियत जानने के बाद वे खुद और अपने सैनिकों को अभ्यास करने-कराने लगे थे। जिम्नास्टिक कुश्ती और योगासन का मिश्रण है। दूसरे खेलों की तरह यह आनंद देने वाला खेल नहीं है। मलखम काफी मेहनत और जोखिम भरा है। थोड़ी सी गलती खिलाड़ी की जान ले सकती है। बीते 50 सालों से यह खेल भारत में प्रचलित हुआ। मगर महाराष्ट्र तक ही सीमित रह गया पर भागलपुर की मारवाड़ी व्यायामशाला में इसका अभ्यास उसी वक्त से ही होता आ रहा था। जिसकी बदौलत झांसी में भागलपुर विश्वविद्यालय ने जीत का झंडा गाड़ा। ये सातों लड़के व्यायामशाला की ही देन है।

मारवाड़ी व्यायामशाला की स्थापना राजस्थानी समाज के उदारमना लोगों ने की थी। जहां युवा पीढ़ी को शारीरिक कौशल उभारने का प्रशिक्षण दिया जाता था। जिसका खर्च समाज के सामर्थवान लोग उठाते थे। पर अब यह प्रवृत्ति खत्म हो गई। बल्कि यों कहें कि उदारमना लोगों की बनाई स्कूल, धर्मशाला, अस्पताल, व्यायामशाला वगैरह धर्मार्थ संस्थाओं की जमीन पर समाज के ही भू-माफिया की नजर लग गई है। इसी वजह से खेलों का विकास रुक गया है। मलखम जैसे खेल तो अब दम तोड़ चुके हैं। जिसे संजीवनी देकर जिलाने की जरूरत महसूस की जा रही है।

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