Saturday, April 20, 2024
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क्या है पंडित दीनदयाल उपाध्याय के राजनितिक जीवन का पूरा किस्सा

SI News Today

What is the full story of Pandit Deendayal Upadhyay’s political life.

  

1963. तीसरी लोकसभा के चुनाव अभी साल भर ही हुए थे, कि कुछ कारणों के चलते कई सीटों पर उप चुनाव की स्थिति बन गई. उत्तर प्रदेश की जौनपुर सीट भी उसमें से एक थी. इस चुनाव पर देश भर के सियासी पंडितों-कद्रदानों की निगाहें टिकी थीं.

दरअसल, इस सीट से जनसंघ के प्रत्याशी के तौर पर पंडित दीनदयाल उपाध्याय अपनी किस्मत आजमा रहे थे. जिसके लिए वो पहले तो तैयार नहीं थे, लेकिन कार्यकर्ताओं के दबाव और भाऊराव देवरस के अनुरोध की वजह से उन्हें यह चुनाव लड़ने का फैसला लिया.

माना जा रहा था कि दीनदयाल उपाध्याय की जीत लगभग तय है. दरअसल, इसके पीछे दो वजहें थी. एक तो खुद उनका कद और दूसरा जौनपुर सीट से 62 के आम चुनाव में जनसंघ के ही प्रत्याशी ब्रम्हजीत सिंह जिन्होंने इस चुनाव में तो बाजी मार ली थी, लेकिन अफ़सोस अचानक से उनका निधन हो गया. जनसंघ मानकर चल रही थी कि जौनपुर में पार्टी का मजबूत जनाधार है और उप चुनाव में इसका फायदा मिलेगा. लेकिन जितना इस चुनाव को आसान समझा जा रहा था, उतना था नहीं.

क्योंकि कांग्रेस ने चुनावी आखाड़े में दीनदयाल उपाध्याय के मुकाबले अपने एक ऐसे दावेदार को उतार दिया था जिसे हरा पाना इतना आसान ना था. स्थानीय लोगों में “भाई साहब” के नाम से मशहूर राजदेव सिंह इंदिरा गांधी के जितने करीबी थे,उतना ही उनका स्थानीय लोगों से भी जुड़ाव था. खासकर युवाओं के बीच क्रांतिकारी तेवर वाले राजदेव सिंह का अपना अलग ही अंदाज था.

यही सब देखते हुए राजदेव सिंह का पलड़ा शुरू से ही भारी नजर आने लगा. रिपोर्ट्स की मानें तो पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने चुनाव नतीजों से पहले ही हार स्वीकार कर ली थी और नतीजे भी वैसे ही रहे.

आज सत्ता की उचाईयों पर बैठी भाजपा जिस पंडित दीनदयाल उपाध्याय को अपना राजनीतिक पितामह मानती है, उनके सियासत का रथ जौनपुर में फंस गया था . जिसके बाद से वो कभी आगे नहीं बढ़ा, उन्होंने अपने जीवन में सिर्फ एक चुनाव ही लड़ा था और जिसे वो हार गए थे.

1963 के उप चुनाव में पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हार के पीछे कई वजहें गिनाई जाती हैं. खासकर, जातीय ध्रुवीकरण का इसमें बार-बार जिक्र होता है. उस चुनाव में राजदेव सिंह को जितवाने के लिए कांग्रेस ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी .

रिपोर्ट्स के मुताबिक राजपूत वोटरों के ध्रुवीकरण का हर जतन किया गया. इसके बरक्स, जनसंघ की स्थानीय इकाई ने ब्राम्हण मतदाताओं को रिझाने का प्रयास किया, लेकिन कहा जाता है पंडित दीनदयाल उपाध्याय खुद इस तरह के ध्रुवीकरण के पक्ष में नहीं थे.

खुद पंडित दीनदयाल उपाध्याय अपनी ‘पॉलीटिकल डायरी’ में लिखते हैं, ‘जनसंघ को इस चुनाव में हार का सामना करना पड़ा, इसकी वजह यह नहीं थी कि जनता का सपोर्ट नहीं था, बल्कि हम कांग्रेस के तमाम चुनावी हथकंडों का जवाब नहीं दे पाए.

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