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है अभी प्रेम का सूर्य चढ़ा
पर मेरा क्या ढल जाऊंगा
जो पीड़ा बिछड़न की झेल चुका
वह नही कभी दे पाऊंगा
तेरा पावन ये हृदय महान
मेरे प्रेम का करे बखान
न हो तुझको ये क्षोभ कभी
कुछ ऐसा मैं कर जाऊंगा
जब कभी वक़्त ने ठुकराया
तब शून्य क्षितिज पर आऊंगा
न हो आँसू इन आंखों में
इतनी नफरत दे जाऊंगा।।
तूने मेरी हर व्यथा सही
फिर भी न करुण कथा कही
मेरे जीवन के हर पथ पर
बनी बटोही निर्भय होकर
पर सदा भाग्य का दोष रहा
पर मन में कभी न रोष रहा
इस समर का कर्ण बना रहा
अपनो से युद्ध ठना रहा
इस प्रेम रण को तज जाऊँगा
किंचित न हो चाह मेरी
इतनी नफरत दे जाऊँगा।।
माना प्रेम है त्याग रूप
पर नही कृष्ण सा मेरा स्वरूप
हूँ मैं कठोर सो दिखता हूँ
ये करुण भाव मैं लिखता हूँ
तुझसे दूर मैं जा करके
बिखर जाऊंगा झुंझला करके
तेरा सुख भी मुझे प्यारा है
इस लोक में मेरा सहारा है
खुद के मन को बंजर करके
पी जाऊं गरल शंकर बनके
भीगी पलकें न सह पाऊंगा
इतनी नफरत दे जाऊंगा।।
(“पुष्पेंद्र प्रताप सिंह“)@Pushpen40953031