नज़्मों के लिए अल्फ़ाजों में इख्तियार जरूरी है।
जीने के लिए मोहब्बत भी कभी कभार जरूरी है।
तेरी आंखों का दीदार कर ये जान गए…
मदहोशी में सनम का हर अल्फ़ाज़ फितूरी है।
ये तो एक सलीका है मेरी इबादत का….
वरना मेरा तो हर अंदाज़ ही गुरूरी है।
फरेबी आंखों के गुनाहों का इस जहां में..
जितना हिसाब जरूरी है।
अब जान ले,अमन की खातिर …
तेरे शहर में भी थोड़ा तो फसाद जरूरी है।
छुप कर निहारते रहे ताउम्र…
अब सांसें भी बंद है और चाहत भी अधूरी है।
अपनी चाहत का तुझसे इकरार न कर पाये…
इस जुबाँ की अपनी अलग मजबूरी है।
तेरे ज़ुल्फों में अता करने दे अब ये दुवा…
थोड़ी तो तेरी भी इबादत जरूरी है।
बेखबर तू मेरे इश्क़ की जुनूनीयत से…
क्यों तेरे कानों को अब पसंद जी हुजूरी है।
तेरे इंतज़ार में ढल गयी आज फिर एक शाम…
तेरे दिल मे हो शमा रौशन ये जरूरी है।
तेरी नज़रे इनायत से होती फजीहत मेरी…
क्यों अपने दरमियाँ बढ गयी दूरी है।
एक उम्र की सीमा में लिपटी हुई तू…
मैं समझता हूं इस जमाने का डर ही तेरी मजबूरी है
अब तोड़ उम्र की सीमा और रिश्तों के बंधन…
अब पूरी कर ये कहानी जो छोड़ी अधूरी है।
जैसे नज़्मों के लिए अल्फ़ाज़ों में इख़्तियार जरूरी है।
तेरे सुकून के खातिर तेरे जिंदगी में….
मेरी चाहत और मेरा प्यार जरूरी है।।…..
(“पुष्पेंद्र प्रताप सिंह“)