Wednesday, July 24, 2024
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आज तक साहित्य पढ़ कर कोई डाकू या बलात्कारी नहीं हुआ

SI News Today

साहित्य और सिनेमा का संबंध उतना ही पुराना है, जितना सिनेमा का इतिहास। दोनों भिन्न और अपनी-अपनी तरह के बेजोड़ कला-माध्यम हैं। दोनों की प्रकृति, रचना-विधान और इसीलिए दोनों के असर और समाज-निर्माण की फितरतें अलग हैं। तभी तो आज तक साहित्य पढ़ कर कोई डाकू या बलात्कारी नहीं हुआ, जबकि सिनेमा से यह भी हो सका है। इस तरह यह अंधे के हाथ में बंदूक वाला माध्यम भी है। क्योंकि इसमें आम आदमी भी शामिल है। अगर सिनेमा की शुरुआत से ही तमाम कारणों से साहित्यिक कृतियों पर फिल्में न बनने लगी होतीं, तो ‘साहित्य और सिनेमा’ की ऐसी समांतर चर्चाएं शायद न शुरू हुई होतीं या इस तरह न शुरू हुई होतीं। हजारों साल के इतिहास में एक जीवंत और आदृत कला-माध्यम के रूप में साहित्य महनीय मूल्यों से पोषित है। कमतर संसाधनों और वैयक्तिक साधनाओं से सहज सृजित है। यानी बहुतेरे गैर-दुनियादार उसूलों और सलूकों के चलते साहित्य की इयत्ता अब तक सिद्ध रही है। और अब भी समय बताएगा कि जिस तरह दो हजार से अधिक सालों बाद भी हर साल तमाम साहित्य प्रेमी वर्षा और बसंत आदि ऋतुओं में ‘ऋतुसंहार’ पढ़ते हैं, दो सौ साल बाद भी क्लासिक फिल्में ही सही, इसी तरह देखीं जाएं, तो महिमा और गरिमा की तुलना हो।

लेकिन इधर बड़े प्रतिभाशाली लेखक और निर्देशक सिने-संसार में आ रहे हैं, जिन्हें देख कर साहित्य और सिनेमा की चर्चा एक नया मोड़ ले रही है। उसकी तुलना साहित्य से की जा रही है। पर मूल बात यह है कि ये लेखक जो लिख रहे हैं, वह साहित्य नहीं है- फिल्मी लेखन भले न हो, फिल्म-लेखन तो है ही। वही रचना अगर साहित्य-रूप में लिखी होती, तो वैसी ही न होती। कोई नामी साहित्यकार भी जब फिल्म के लिए अलग से कहानी लिखता है, तो वह साहित्य नहीं होता। ऐसे लेखन को स्वतंत्र मूल्यांकन में चाहे जितना दर्जेदार माना जाए, लेकिन साहित्य के बरक्स इसे नहीं रखा जा सकता। लेकिन आज के भौतिक लिप्सा के युग में लोकप्रियता-मोह में साहित्य(कार) भी सिनेमा की तरफ जाने को लालायित हैं और इस लालसा में उनकी गरिमा तो बढ़ती नहीं, साहित्य श्रीहीन अवश्य हो जाता है। फिल्म-सीरियल बन जाने के मोह से लिखी ढेरों रचनाएं हैं, जो परदे पर आकर भी आज उपेक्षा के गर्त में दबी पड़ी हैं और प्राय: न बन पाने की नियति का शिकार होकर ‘न खुदा ही मिला, न विसाले सनम’ में ‘न इधर के रहे, न उधर के रहे’ होकर रह गई हैं।

इसलिए कहा जा सकता है कि इस संबंध में सिनेमा इस तरह कर्त्ता की भूमिका में होता है कि साहित्य से आकर्षित भी वही हो, उस पर फिल्म भी बनाए-दिखाए-बेचे भी। शायद यह मामला भी साहित्य की गरिमा का है, जिसे आज का उपभोक्ता-युग पिछड़ापन कहेगा। उसके सृजन की ही यह शक्ति है कि साहित्य से आकृष्ट होकर सिनेमा समृद्ध हो सकता है, पर सिनेमा से आकृष्ट होकर साहित्य नहीं। और साहित्यकार तो बिल्कुल नहीं। इसके ढेरों उदाहरण मौजूद हैं। इस सत्य को समझ कर ही प्रेमचंद और रेणु जैसे लोग सिनेजगत में जाकर लौट आए होंगे। न लौटते, तो शर्तिया कहा जा सकता है कि ‘गोदान’, ‘कफन’ या ‘परती परिकथा’ न लिखा जाता। इसका जाहिर हस्र कमलेश्वर और मीडिया में जाकर ही ‘अंधायुग’ जैसा कुछ न दे पाने वाले भारती जैसों में बेहद साफ है। फिर एक ऐसी साधना भी आई, जिसका मानक राही और मनोहरश्याम जोशी जैसे लोग दे सके। ये फिल्म-टीवी में रहते हुए भी ‘टोपी शुक्ला’, ‘सीन-75’ और ‘कसप’, ‘हमजाद’ जैसी रचनाएं देते रहे। लेकिन मांग पर फिल्म के लिए लिखने को जोशीजी ‘अपनी कला का वेश्याकरण’ कहते थे, पर वेश्या और घर को निभाने की कला भी जानते थे।

सिनेमा में कविता की उपस्थिति कथा के मुकाबले काफी बाहरी है, जिसके चलते फिल्म जगत में कवियों की स्थिति ऐसी नहीं है। बने-बनाए गीत भी फिल्मों में लिए गए हैं- ‘कोई गाता, मैं सो जाता’ (बच्चन), ‘ज्योति कलश छलके…’(नरेंद्र शर्मा) जैसे, लेकिन यह कम ही हुआ है। ज्यादा से ज्यादा फरमाइशी स्थितियों पर लिखे गीत (सिचुएशन सांग) ही हैं, पर वे गीतकार गीत लिख कर किनारे हो जाते हैं, इसलिए भागने की स्थिति न के बराबर है और समझौते भी ज्यादा नहीं करने पड़ते। फिर भी साहिर ने कई गीतों के फिल्मी संस्करण अलग से बनाए, जिनमें ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए, तो क्या है…’ जैसी नज्म भी शामिल है। सही तुलना की जाए, तो साहित्य पर कई दृष्टियों से भारी पडेंगे फिल्म में आए गीत। इस पक्ष पर विश्वविद्यालयों में कई अच्छे मूल्यांकन-कार्य हो सकते हैं। प्रदीप, भरत व्यास, नीरज, नरेंद्र शर्मा, साहिर, मजरूह, कैफी आदि की एक लंबी शृंखला है। फिर भी प्रदीप का लिखा गीत सिनेमा हॉल में सुन कर निराला का ठहाका और ‘लड़का बिगड़ गया…’ टिप्प्णी के साथ उठ कर चले जाना काफी कुछ कह जाता है।

साहित्य एक झोंपड़े में बैठे की साधना है, जबकि फिल्म-निर्माण एक महल बनाने-चलाने का सरंजाम। लेखक कलम-कागज लेकर दुनिया के किसी कोने में बैठ कर अपना सृजन कर सकता है, लेकिन फिल्मकार को लोकेशन के साथ ढेरों संसाधन और लोग चाहिए- वह भी कुशल लोग। बात संप्रेषण की है। इतने लोगों में बंट कर वह मूल सृजन-चेतना वैसी ही खांटी कहां रह जाती है, जैसी लेखन में होती है। सबमें मिल-बंट कर फैल-पसर जाती है। उदाहरण के लिए पात्रत्व की कल्पना के मुताबिक चयनित योग्यतम कलाकार भी ठीक-ठीक वैसा नहीं करेगा, जैसा कि निर्देशक ने सोचा, मन की आंखों देखा होगा। तो बिखराव न सही, हुआ न फैलाव? फिर कैमरे से लेकर अन्य सभी कारकों से गुजरते हुए वह आइडिया कितना बदल जाता है! लेखक के अति सीमित साधनों में ऐसे प्रसरण की गुंजाइश नहीं। सो, फिल्म के मुकाबले रचना में तब्दीली ‘ना’ के बराबर होती है- गोकि होती है- मैं अपने ही बेसुधपन में लिखती हूं कुछ, कुछ लिख जाती की मानसिक प्रक्रिया तो है ही, जो फिल्म की कथा-पटकथा में भी घटित होती है। इतने संसाधनों और लोगों के होने की स्वाभाविक परिणति होती है- पहले लाखों और अब करोड़ों रुपए की लागत। इसके चलते सिनेमा अपने दर्शक वर्ग से उस तरह निरपेक्ष नहीं रह सकता, जिस तरह साहित्य रह सकता है। भवभूति की तरह फिल्मकार अनंत देश-काल के भावी दर्शक के लिए फिल्म नहीं बना सकता, क्योंकि उसे लागत की वापसी शर्तनामे के नियत समय में करनी होती है। इसके लिए जिस वितरक पर निर्भर होना होता है, वह कलाकार नहीं, व्यापारी होता है।

इस भौतिक ताप को बिना समझे फिल्मों का व्यावहारिक मूल्यांकन नहीं हो सकता। पहले साहित्यकार की समझ में आता ही नहीं था- ‘कला के लिए समझौता’। हां, उसके अंदर इतना संतोष और शक्ति भी होती थी कि एक ही बीड़ी को बार-बार जला कर पीते हुए (कोई प्रेमचंद) साहित्य-सृजन में निमग्न रह सकता था। फिल्म में तो वह भी संभव नहीं। संतोष की बात है कि आज के भौतिक युग में इस तथ्य को समझा जाने लगा है कि फिल्म में दर्शक (आज बॉक्स आॅफिस) से बेपरवाह नहीं रहा जा सकता। साहित्य इस दबाव से मुक्त है, इसीलिए अपने आइडियाज मात्र पर अंतिम हद तक टिका रह सकता है- गोकि आज उसमें भी ऐसा हो नहीं रहा, लेकिन सिनेमा में तो उसकी उक्त प्रवृत्ति के चलते यह असंभव ही है- गोकि जितना इसके पीछे भागना हो रहा है, वह भी नितांत गैरजरूरी है, लेकिन प्रकृतिगत यह फर्क दोनों की प्रक्रिया और परिणाम में सबसे कारगर भूमिका निभाता है। और यह सच भले-भले लोगों से भी बेतुके समझौते कराता है।

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