मैसूर: यूं तो पूरे देश में आज दशहरा मनाया जा रहा है. लेकिन मैसूर का दशहरा अपने अलग और विशेष अंदाज में मनाए जाने के कारण पूरी दुनिया में मशहूर है. कई देशों के लोग तो कई सालों से लगातार यहां का दशहरा देखने के लिए ही मैसूर आते हैं. दरअसल यहां पर दशहरे को मनाने की एक लंबी परंपरा है. दशहरा, नवरात्रि और विजयदशमी पर्वों को बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में मनाया जाता है. ऐसी मान्यता है कि इस अवसर पर चामुंडेश्वरी देवी ने महिसासुर राक्षस का वध किया था. महिसासुर के वध की वजह से इस शहर का नाम मैसूर पड़ा.
मैसूर में दशहरा पर्व मनाने की लंबी परंपरा है. यहां पर इसको ‘कर्नाटक का नाडा हब्बा’ कहते हैं. 2010 में इस परंपरा के 400 साल पूरे हुए हैं. कुछ साक्ष्यों के मुताबिक 15वीं सदी में विजयनगर साम्राज्य के राजाओं ने इस पर्व को कर्नाटक में शुरू किया. 14वीं सदी में इसकी ऐतिहासिक भूमिका थी. उस वक्त हम्पी में इसको महानवमी कहा जाता था.
विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद मैसूर के वाडयार राजाओं ने महानवमी (दशहरा) मनाने की परंपरा को जारी रखा. इस दौरान विशेष दरबार का आयोजन किया जाता था. कृष्णराज वाडयार तृतीय ने मैसूर पैलेस में विशेष दरबार लगाने की परंपरा शुरू की थी. दिसंबर, 2013 में श्रीकांतदत्ता वाडयार की मृत्यु के बाद इस परंपरा को यदुवीर कृष्णदत्ता वाडयार आगे बढ़ा रहे हैं.
अर्जुन हाथी पर होगी जंबो सवारी
नवरात्रि के दौरान मैसूर शाही परिवार के वंशज नौ दिनों की विशेष पूजा का आयोजन करते हैं. नौवें दिन ‘चंडी होम’ और ‘आयुद पूजा’ होती है. 10वें दिन ‘स्वर्ण पात्र’ में चामुंडेश्वरी देवी की मूर्ति को बिठाया जाता है और वहां से उनको बन्नीमानतापा ले जाकर उनकी पूजा की जाती है. इस यात्रा को जंबो सवारी कहा जाता है. दशहरा के दिन हाथी के ऊपर चामुंडेश्वरी देवी की मूर्ति को ‘स्वर्ण पात्र’ (750 किलो का स्वर्ण पात्र) में रखा जाता है. इस साल अर्जुन हाथी पर जंबो सवारी होगी. इस मूर्ति की पूजा शाही परिवार, मुख्यमंत्री और अन्य विशिष्ट लोगों द्वारा की जाती है. मैसूर पैलेस से बन्नीमानताप तक हाथी, घोड़ों, ऊंट, गाजे-बाजे, ढोल-नगाड़ों के साथ इस सवारी को ले जाया जाता है.