मोहन मधुकर भागवत। अगर आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गणवेश से लेकर लैंगिक और समलैंगिक मुद्दों पर आधुनिक ताना-बाना अख्तियार कर रहा है तो उसके पीछे यही एक मजबूत चेहरा है। संस्कृति को राजनीति का कारगर हथियार बनाना है तो आप खुद में किस हद तक सांस्कृतिक बदलाव लाएंगे? आम लोगों की भावना जगत से हिंदू विचारधारा का रिश्ता जोड़ने के लिए ये दो कदम आगे बढ़े तो आम जनता इनकी परंपरा से जुड़ने के लिए एक कदम पीछे हटने को बाखुशी तैयार हो गई। भारत के आधुनिक युवा खाकी निक्कर से हिचक रहे थे तो बिना झिझक उन्हें फैशनेबल वर्दी दे दी। बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम कर रहे, विदेशी निवेश की बाट जोह रहे, अमेरिका और आॅस्ट्रेलिया के वीजा नियमों पर भारत के आम बजट से ज्यादा रुचि रुखने वाली पीढ़ी ‘स्वदेशी’ को बंधन मान रही थी तो उदारमना हो उसे भी छोड़ कर वसुधैव कुटुम्बकम के आधुनिक विश्व ग्राम वाले चेहरे से भी परहेज नहीं किया। एक वह दौर था जब दक्षिणपंथ के झंडाबरदार सार्वजनिक मंचों पर राजनीतिकों से मुंह फेरते थे। और, अब यह एक दौर है जब शिवसेना खुलेआम मोहन भागवत का नाम राष्टÑपति के पद के लिए आगे कर देती है। शिवसेना के इस रुख को भागवत भले ही मीडिया का मनोरंजन कहकर खारिज कर दें, लेकिन यह इस बात का सबूत है कि उनकी अगुआई में ही संघ ने राजनीति के संस्थागत ढांचे में अपनी पैठ मजबूत बना ली है।
जब देश इंदिरा गांधी के आपातकाल से जूझ रहा था तो उस वक्त पशु चिकित्सा में अपने स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम को अधूरा छोड़कर संघ के पूर्णकालिक स्वयंसेवक बन गए। महाराष्टÑ के नागपुर और विदर्भ क्षेत्र में प्रमुख प्रचारक रहे भागवत की एक ऊर्जावान और उत्साही संघ कार्यकर्ता की छवि बनी। साल 2000 में केएस सुदर्शन के संघ प्रमुख चुने जाने के साथ इन्हें सह सरसंघचालक चुना गया। 21 मार्च 2009 को इन्हें संघ का सरसंघचालक चुना गया। सुदर्शन से लेकर भागवत के संघ की कमान संभालने तक का समय इस संगठन के लिए संक्रमणकाल सरीखा था। बाजार की शक्तियों से घिरा मध्यमवर्ग भारत की राजनीति को प्रभावित कर चुका था। और, यह भी दिख रहा था कि यही राजनीति भारत के अर्थ से लेकर संस्कृति तक को प्रभावित कर रही थी। बाजार और आस्था तंत्र से घिरे मध्यमवर्गीय समाज के समीकरण को देखते हुए मध्यममार्ग अपनाने की तैयारी कर ली गई। खुद को महज सांस्कृतिक संगठन बताने वाले संघ ने भागवत की अगुआई में खुले तौर पर राजनीति के राजपथ पर चलना मंजूर किया क्योंकि उसे अहसास हो चुका था कि जनपथ का रास्ता इधर से ही जाता है।
कश्मीर से कन्याकुमारी तक ‘बिखरे हुए हिंदू समाज’ को राजनीति के शिखर से जोड़ने के लिए और आम हिंदुस्तानियों से जुड़ने के लिए अपने 36 से ज्यादा अनुषंगी संगठनों को युद्धस्तर पर सक्रिय किया। 2013 में अमरावती में हुई संघ की बैठक में अयोध्या मुद्दे को उठाने के खिलाफ आवाज उठी। तय हुआ कि मंदिर को सामने लाने से कांग्रेस के खिलाफ उठ रहे भ्रष्टाचार और अन्य नीतिगत मुद्दे पीछे चले जाएंगे। और, मंदिर के बरक्स रोटी-कपड़ा और मकान का जनपक्षीय सवाल उठाने का कारण था सामने आ रहा लोकसभा चुनाव व कांग्रेस की गिरती साख। अमरावती से संघ की जनपथ से राजपथ की दिशा तय हुई। तय हुआ कि संघ के अनुषंगी संगठनों का इस्तेमाल भाजपा को राजनीतिक सत्ता दिलाने के लिए हो। भागवत की अगुआई में अमरावती से विचारों का वह संशोधित गुच्छा निकला जो भारत के आम मतदाताओं की पसंद पर खरा उतर सकने को तैयार था।
आम मतदाताओं के बीच पहुंचने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ राष्ट्र सेविका समिति की अहमियत को भी भागवत ने खूब समझा। संगठन के अंदर महिलाओं को पदाधिकारी बनाने के निर्देश दिए गए। भारतीय स्त्री शक्ति (बीएमएस) उदारवादी विचारों के साथ महिलाओं की अगुआई में जुटी। इसके जरिए स्त्री अधिकारों पर आधुनिक परिप्रेक्ष्य में बात की गई। स्त्री को परिवार के दायरे से बाहर निकाल कर देखने की कोशिश की गई। लैंगिक मुद्दों पर विचार-विमर्श शुरू हुआ। महज मां की भूमिका के इतर कामकाजी महिलाओं के संदर्भ में बहस शुरू की गई।
स्त्री हो या जाति या अल्पसंख्यक का मुद्दा। भागवत ने संघ की बंद दीवारों में खिड़की बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मोदी की अगुआई में राजग सरकार का पहला साल असहिष्णुता के थपेड़ों में उलझा रहा। संघ से जुड़े संगठन के लोग हर ‘खान’ को पाकिस्तान भेजने पर तुले थे और आमिर को असहिष्णुता का दूत बनाकर पेश कर दिया गया था। लेकिन, राजग सरकार की तीसरी सालगिरह के समारोह के पहले ही भागवत और आमिर खान तस्वीर के एक चौखटे में सहिष्णु अदा के साथ दिखे। पिछले सोलह सालों से पुरस्कार समारोहों से दूर रहनेवाले आमिर खान पुरस्कार ग्रहण करते हैं वह भी मोहन भागवत के हाथों से। भागवत का पुरस्कार देना और आमिर का लेना भगवा के भागवत काल की उदार गाथा की तस्वीर बयान करने के लिए काफी है।