Thursday, May 16, 2024
featuredदेश

लालू यादव और प्रभुनाथ सिंह के बीच थी कभी जानी दुश्मनी, आज है गहरी दोस्ती

SI News Today

साल 2014 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद मीडिया से अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए पूर्व सांसद और राजद नेता प्रभुनाथ सिंह ने कहा था ‘चुनाव हारने का मलाल मुझे रत्ती भर भी नहीं है। दुःख इस बात का है कि मैं इस बार का इलेक्शन एक बकरी से हार गया।’ सीवान जिले के महराजगंज लोकसभा सीट पर उनकी टक्कर बीजेपी के जनार्दन सिंह सिग्रीवाल से हुई थी। सिग्रीवाल नीतीश सरकार में श्रम संसाधन मंत्री भी रह चुके हैं। बहरहाल, प्रभुनाथ सिंह करीब तीन दशक तक दबंगई करने के बाद 23 मई को कानूनी पिंजड़े में कैद हो गए लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर प्रभुनाथ सिंह की नजर में सिग्रीवाल जैसे राजनीतिज्ञ बकरी क्यों हैं?

यह जानने के लिए भोजपुरी भाषी छपरा जोन की जमीनी हकीकत और इस क्षेत्र में रहने वाले करोड़ों लोगों का मिजाज समझना होगा। आजादी की लड़ाई से लेकर 70 के दशक तक सारण कमिश्नरी के छपरा, सीवान और गोपालगंज जिलों में शरीफ स्वभाव के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से लेकर सीएम अब्दुल गफूर तक सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं का बोलबाला था। अस्सी की शुरूआत में यहां के ग्रामीण इलाकों में छिटपुट तरीके से सामंती मांइडसेट के जोतदारों के खिलाफ नक्सली एक्टिवीटी का बीजारोपण हुआ। साथ ही साथ इसी काल खण्ड में छपरा जिला के राजनीतिक प्लेटफार्म पर प्रभुनाथ सिंह और लालू प्रसाद यादव का उदय हुआ। सनद रहे कि लालू और प्रभुनाथ क्रमशः 1977 और 1985 से लोकसभा और विधानसभा चुनाव में सारण जिला के किसी न किसी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं।

मनुष्य के मन-मस्तिक में जब से उग्र जातीयता का बोध हाबी होना शुरू हुआ, तब से पुरबिया, विदेशिया, चैती और भोजपुरी निर्गुण गीतों के सृजनकर्ता इस क्षेत्र में सवर्णों खासकर राजपूतों का राजनीतिक एवं प्रशासनिक स्तर पर वर्चस्व रहा है। गोपालगंज जिले में कभी-कभार बीच-बीच में काली पाण्डेय जैसे ब्राह्मण तथा नगीना राय सरीखे भूमिहार दबंग नेताओं का दमदार तरीके से आगाज हुआ लेकिन सीवान और छपरा जिले में राजपूत ही कमान को अपने हाथ में थामे हुए थे। 1995 के बाद सीवान का बेताज बादशाह मोहम्मद शहाबुद्दीन बन गया। 1947 से लेकर 1971 के चुनाव तक सारण में हर राजनीतिक मोर्चे पर यादवों ने राजपूतों का साथ दिया लेकिन मलाई खाने की हिस्सेदारी में राजपूतों ने यादवों के साथ बेइमानी की।

1980 के दशक में लालू प्रसाद यादव की असरदार राजनीतिक भूमिका के आगे राजपूतों का ताप धीरे-धीरे धूमिल हाने लगा। पूरे इलाके में यादव समाज के अलावे अन्य जाति और सम्प्रदाय के लोग लालू के पीछे गोलबंद होकर राजपूतों को हर फ्रंट पर चुनौती देने लगे। लिहाजा, आपसी रंजिश में हिंसक घटनाएं होने लगी जिसमें यादव भारी पड़ने लगे। तब राजपूतों को एक अदद खेवनहार की जरूरत महसूस होने लगी जो लालू के स्टाइल में ही उनका जवाब दे सके। ऐसे में प्रभुनाथ सिंह का उदय हुआ। ऐसा कहा जाता है कि सिंह हर समस्या का समाधान गोली, बम और बंदूक की भाषा से करने में आस्था रखते हैं। तब इनके समर्थक बिगड़ैल राजपूत युवकों को ज्ञान देते थे, “जो ताको कांटा बोये, ताही बोए तू भाला, तो साले को पता चले कि पड़ा किसी से पाला।”

1990 के शुरुआती दशक में बिहार विधानसभा में चर्चा के दौरान लालू प्रसाद यादव ने व्यंग्य किया था, ‘‘ऐसे दिन आ गए हैं कि हाऊस को प्रभुनाथ का स्पीच सुनना पड़ रहा है।’’ सिंह ने पलटवार किया था, ‘‘सदन जब लालू जैसे गइल आदमी का भाषण सुन सकता है तो मेरा क्यों नहीं।’’ उन दिनों लालू और प्रभुनाथ के बीच क्षेत्र में वर्चस्व के लिए अघोषित हिंसक जंग छिड़ गई थी जिसमें दोनों तरफ के कई लोगों की जानें गई थीं। 33 मर्डर के आरोपी प्रभुनाथ सिंह को लालू के नॉमिनी अशोक सिंह ने 1995 चुनाव में मशरख विधानसभा क्षेत्र से हरा दिया था। आरोप है कि हार का बदला प्रभुनाथ सिंह ने अशोक सिंह की हत्या करवाकर ली। इसी केस में प्रभुनाथ सिंह को झारखंड की अदालत ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। 1995 में ही प्रभुनाथ सिंह जनता दल को छोड़कर जनता दल यूनाइटेड में शामिल हो गए थे लेकिन बाद में वो फिर से लालू की पार्टी राजद में शामिल हो गए।

लालू प्रसाद यादव के 15 साल के शासन में इलाके के लोगों की मानसिकता बदल गई। सीधा-साधा और शांतिप्रिय मिजाज के लोगों को ‘बकरी’ कहकर पुकारा जाने लगा। महाराजगंज लोकसभा का कई बार प्रतिनिधित्व कर चुके पूर्व केन्द्रीय राज्य मंत्री और गांधीवादी नेता राम बहादुर सिंह ने 1998 में कहा था, ‘‘मैंने चुनाव लड़ना इसलिए छोड़ दिया कि ज्यादातर वोटर मुझसे असलहा और दारू की मांग करते हैं।’’ इसपर प्रतिक्रिया देते हुए प्रभुनाथ सिंह ने कहा था ‘‘राम बहादुर एक अपाहिज व्यक्ति है।’’

SI News Today

Leave a Reply