मोदी सरकार के तीन साल और देश के गृह मंत्री का दावा कि कश्मीर, कश्मीरी और कश्मीरियत हमारे हैं, हमारी सरकार कश्मीर समस्या का स्थायी समाधान देगी…लेकिन घाटी के दर्द से आहत देश के प्रबुद्ध और जिम्मेदार नागरिकों के सवाल हैं कि जिस सरकार की इस दिशा में कोई नीति ही नहीं दिख रही, वादों के उलट कश्मीर के अंदर के विभिन्न समूहों से संवाद की कोई पहल ही नहीं जिससे ‘मूसा’ जैसी ताकतें एक ‘राजनीतिक समस्या’ को मजहबी रंग देने की कोशिश कर रही हैं, निराशा और नफरत के शिकार युवाओं को मनाने की कोई कोशिश नहीं, हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं, ऐसे में यह सरकार क्या वाकई हालात सुधारने के प्रति गंभीर है? घाटी की समस्याओं का एक अहम पहलू रहे विस्थापित कश्मीरी पंडितों के सवाल भी इनसे खास जुदा नहीं हैं।
यूपीए के दौरान कश्मीर मुद्दे पर गठित तीन सदस्यीय वार्ताकारों के दल में रहीं राधा कुमार का कहना है कि खुद सरकार के अंदर से विरोधाभासी बयान आ रहे हैं। बकौल कुमार, ‘राजनाथ सिंह समाधान की बात कहते हैं और अरुण जेटली कहते हैं कि वहां युद्ध जैसी स्थिति है, सेना को हमें छूट देनी होगी। इन सबके बीच सरकार की तरफ से स्थानीय लोगों के जख्मों पर मरहम लगाने की कोई कोशिश नहीं होती, जिससे कश्मीरी युवा और अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। हम न केवल इन युवाओं का बल्कि पूरे कश्मीरी समाज का विश्वास खो चुके हैं। मोदी सरकार की नीति आक्रामक है जो घाटी की संवेदनाओं के प्रति पूरी तरह से जानबूझ कर असंवेदनशील है। मुझे आश्चर्य होता है कि क्या यह कश्मीरियों को भारत से दूर करना चाहते हैं’।
वार्ताकार दल की अनुशंसाओं पर उस वक्त न तो यूपीए सरकार ने अमल किया और न वर्तमान एनडीए सरकार की रुचि इसमें दिख रही है। हालांकि, राधा कुमार का मानना है कि वे अनुशंसाएं आज के संदर्भ में भी प्रासंगिक हैं। खासकर मानवाधिकारों और राजनीतिक समाधान की बात। सेना की मौजूदगी कम करने, आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट की समीक्षा, डिस्टर्ब एरिया एक्ट को हटाने, रोजगार और विकास जैसे बिंदु भी इन अनुशंसाओं में शामिल थे। मानवाधिकार, संवाद और राजनीतिक समाधान की वकालत तो पूरा नागरिक समाज करता दिख है।
एयर वाइस मार्शल (सेवानिवृत्त) कपिल काक का मानना है कि मोदी सरकार की कोई कश्मीर नीति है ही नहीं। काक ने कहा, ‘चुनाव के समय तो उन्होंने कहा था कि कश्मीर के बारे में राजनीतिक पहलू से आगे बढ़ेंगे, इंसानियत, कश्मीरियत, जम्हूरियत… वाजपेयी के ये शब्द काफी बार दोहराए गए, लेकिन कोई बदलाव नहीं दिख रहा, जबकि जो सूरतेहाल है, वो दिन-ब-दिन खराब होता जा रहा है’। कपिल काक के मुताबिक, ‘यह देश के हित में है कि मुख्यधारा, अलगाववादियों, असंतुष्टों, कट्टरपंथियों, नरमपंथियों, नागरिक समाज सभी से संवाद किया जाए, क्योंकि इससे आगे जो ताकतें विकसित हो रही हैं वे सही मायने में बहुत खतरनाक हैं। अगर ऐसा नहीं करते हैं तो मूसा (हिजबुल मुजाहिद का कमांडर जाकिर मूसा) जैसी ताकतें मजबूत होंगी, जिनके लिए कश्मीर राजनीतिक नहीं मजहबी मसला है’। गौरतलब है कि हिजबुल की तरफ से हार्डलाइनर आॅल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस के नेताओं को कश्मीर को राजनीतिक मसला बताने के कारण धमकी दी गई है कि उनके सिर कलम कर लाल चौक पर टांग दिए जाएंगे।
कंसंर्ड सिटीजन ग्रुप की तरफ से कश्मीर जाते रहे काक ने बताया कि भारत सरकार को कश्मीर की एकजुट आवाज सुननी होगी, जो संवाद चाहता है। काक के मुताबिक, ‘कश्मीर समस्या की कई धाराएं हैं, कई पहलू हैं, कई साझेदार हैं, यहां पर जब सेना में भर्ती होती है, 600 खाली पदों के लिए 5000 कश्मीरी युवा मुसलमान आते हैं, दूसरी तरफ वे जो नाराज हैं हिंदुस्तान से, भारत सरकार की तरफ से जो तीन-चार पीढ़ियों का धोखा है, वो उनकी रगों में बसता है, उनके लिए जरूरी है भारत बात करे’। आगे वे जोड़ते हैं कि जिस प्रधानमंत्री को अपनी पार्टी के एक वरिष्ठ सदस्य यशवंत सिन्हा की बात सुनने की फुर्सत नहीं, वे किसकी सुनेंगे। सिन्हा की अध्यक्षता में पिछले साल पांच सदस्यीय दल हालात का जायजा लेने और लोगों से बात करने कश्मीर गया था, जिसमें काक भी थे।
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष, देश के पहले सूचना आयुक्त और 1990 के दशक के शुरू में जम्मू-कश्मीर के कई जिलों के आयुक्त रह चुके वजाहत हबीबुल्लाह का भी मानना है कि सरकार की कोई नीति नहीं और यही कारण है कि आज जो घाटी की स्थिति है उतनी गंभीर पहले कभी नहीं थी। उन्होंने कहा, ‘मैं वहां कमिश्नर था 1990 में जब वहां हिंसा की शुरुआत हुई थी, लेकिन जो हालात अब हैं तब वो वहां नहीं था। हिंसा जरूर ज्यादा थी, लेकिन इतनी निराशा नहीं थी। आज हम कश्मीर में सुरक्षित जरूर हैं, पर्यटन का आनंद उठा रहे हैं, लेकिन इसके साथ ही वहां हर जगह निराशा पसरी पड़ी है सरकार के अंदर भी, बाहर भी, जनता में भी, सरकार के कार्यकर्ताओं में भी’।
बकौल वजाहत, ‘आज घाटी के नौजवान और सुरक्षा बलों के बीच जो टकराव है वह राष्ट्र के लिए चुनौती है। जिसका समाधान सेना नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रयास है। लेकिन अफसोस, सरकार की कोई कोशिश नहीं दिख रही। माना कि पिछली सरकारों की नीतियां गलत रहीं, लेकिन आपकी नीति है क्या, यही नहीं पता’। सेंटर फॉर डायलॉग एंड रिकंसिलेशन की सुशोभा ब्रेव का कहना है कि सरकार अपने वादे को अमल में नहीं लाएगी तो हालात तो खराब ही रहेंगे। ब्रेव का सवाल है कि स्थायी समाधान के लिए जैसे नागालैंड में सरकार नागा भूमिगत नेताओं के साथ पिछले 17 सालों से बात कर रही है, वैसे ही कश्मीरी लोगों के साथ बात क्यों नहीं हो सकती। वो पूछती हैं, ‘किसके साथ आप बात नहीं करेंगे, जो आपसे सहमत नहीं है उन्हीं के साथ तो बात करनी है न, ताकि हालात सुधारे’। बकौल ब्रेव नाराजगी के बावजूद कश्मीरी मोदी को मजबूत प्रधानमंत्री मानते हैं और कहते हैं कि अगर वे भी कोई हल नहीं निकाल पाए तो हमारे पास कोई उम्मीद नहीं बचती।
कश्मीर के विस्थापित पंडितों का दर्द भी मोदी सरकार के मरहम की तीन सालों तक बाट ही जोहता रहा। श्रीनगर के मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर रह चुकीं और विस्थापन के बाद दिल्ली के अपोलो में अपनी सेवाएं दे रहीं डॉ शक्तिभान कहती हैं, ‘हम वहां के मूल निवासी हैं, अगर हमें संवाद का हिस्सा नहीं बनाया जाता तो समस्या का समाधान नहीं हो सकता। हमें काफी उम्मीद थी इस सरकार से लेकिन जो अभी तक की सरकारें करती रही हैं, ये भी वही कर रही है, सब वोट बैंक की राजनीति है’।