“किसान” ऐसा शब्द जिसको सुन कर किसी भी इंसान का चरित्र चित्रण किया जा सकता है।गरीबी और कर्ज से जूझता ऐसा इंसान जिसके बल पर भारतीय अर्थव्यवस्था टिकी मानी जाती है, लेकिन इनकी परिस्थित में कोई ख़ास सुधार देखने को नहीं मिलता,आज भी किसान विकसित परिवेश की मुख्यधारा में कहीं न कहीं पीछे छूट गया है।ऐसा नहीं है की इनके लिए आवाजें नहीं उठीं नील विद्रोह , पाबना विद्रोह , तेभागा आन्दोलन,
चम्पारन सत्याग्रह ,
बारदोली सत्याग्रह और
मोपला विद्रोह प्रमुख किसान आन्दोलन के रूप में जाने जाते हैं।लेकिन इनके जीवन में कुछ ख़ास सुधार हुआ नहीं।आज भी कहीं न कहीं ये एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा हैं। यह ऐसा मुद्दा हैं जो आपको विधानसभा और लोकसभा तक ले जा सकता है।लेकिन हमेशा ये मुद्दा ही रह गए,फिलहाल थोड़ी बहुत राहत दी गयी इनको कर्ज माफ़ी के रूप में।उत्तर प्रदेश सरकार का एक बड़ा फैसला है कर्ज माफ़ी।अभी हाल ही में मैंने कई गाँवों का रुख किया और इस फैसले को लेकर प्रतिक्रिया ली,काफी अच्छी प्रतिक्रिया रही,लेकिन समस्या यहाँ पर यह है की ज्यादातर लोगों ने फिर से कर्जा लेने का मन बना लिया है। लोगों को अब लगने लगा है की आगे भविष्य में अगर जो भी सरकारें बनेंगी वो कहीं न कहीं कर्ज माफ़ी का वादा तो जरूर करेगी। कर्ज माफ़ी किसानो की परिस्थित को सुधारने में कितना उपयोगी है ये पिछली कांग्रेस सरकार में देखने को मिला है।सरकार का पहला प्रयास यह हो क़ि किसानो को मूलभूत सुविधाओं से वंचित न रहना पड़े।उनके लिए जो भी योजना बने वो उनके लिए सुलभ हो।आश्चर्य जनक बात तो यह भारत में सरकारी आंकड़ो के हिसाब से 70% से ज्यादा लोग प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर हैं, कृषि पर इतनी ज़्यादा निर्भरता होने के बावजूद भी अगर किसान आत्महत्या करता है तो यह पूरे देश,सरकार,समाज, सबके लिए शर्म की बात है। NCRB(National Crime Record Beuro) के अनुसार भारत में किसान आत्महत्या दर 1.4 से 1.8/10000व्यक्ति है।और सबसे ज्यादा 2004 में 18241 किसानो ने आत्महत्या की। इसके कई कारण है भारतीय कृषि का बहुत हद तक मानसून पर निर्भर होना तथा मानसून की असफलता के कारण नकदी फसलें नष्ट हो जाना किसानों द्वारा की गई आत्महत्याओं का मुख्य कारण माना जाता रहा है। मानसून की विफलता, सूखा, कीमतों में वृद्धि, ऋण का अत्यधिक बोझ आदि परिस्तिथियाँ, समस्याओं के एक चक्र की शुरुआत करती हैं। बैंकों, महाजनों, बिचौलियों आदि के चक्र में फँसकर भारत के विभिन्न हिस्सों के किसानों ने आत्महत्याएँ की है।2014 में मोदी सरकार ने भी किसान आत्महत्या को अपना मुद्दा बनाया,लेकिन विदर्भ,बुंदेलखंड,बाराबंकी और भी कई अन्य जगह किसान आत्महत्या नहीं रुकी।आज भी तमिलनाडु के किसान पिछले कुछ समय से लगातार जंतर मंतर पर क़र्ज़ माफ़ी को लेकर,कभी चारा खा कर कभी मूत्र पीकर प्रदर्शन कर सरकार और मीडिया का ध्यान अपनी तरफ केन्द्रित करना चाहते हैं।लेकिन मीडिया उनकी समस्या से ज्यादा उनके प्रदर्शन करने के तरीके को जनता तक पहुंचा रही है।मेरा एक सवाल पक्ष ,विपक्ष के नेताओं से है जब आप सत्ता में होते हो तो आप कितने लाचार लगते हो,और विपक्ष में आपकी फुर्ती देखने योग्य होती है ऐसा क्यूँ? सरकार को इन किसानो की समस्या का निवारण करना चाहिए और इनकी मांग पर विचार करना चाहिए।लेकिन क्या क़र्ज़ माफ़ी किसानो की होती दुर्दशा को रोकने के लिए पर्याप्त है या फिर यह केवल एक दर्दनिवारक है जो कुछ समय के लिए आराम तो देता है लेकिन बिमारी को जड़ से मिटाने में असमर्थ है।अगर सीमा पर एक जवान शहीद होता है तो खून में उबाल और पाकिस्तान के प्रति गुस्सा असहनीय होता है।और एक किसान की आत्महत्या पर हमारी भावनाएं इतनी शिथिल क्यूँ??
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the authorPushpendra Pratap singh
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