भारत का लोकतंत्र विश्व का सबसे विशाल लोकतंत्र होने के साथ काफी रहस्यमयी भी है।इतिहास के पन्नो को खंगालने पर यह पता चलता है की पूर्व में और आज भी सत्ता के संतुलन को बनाये रखने के लिए कई खूनी इबारतें भी लिखी गईं हैं।और उंगली जब लोकतांत्रिक महामूर्तियों पर उठने लगे तब तो यह काफी चिंता और भय का विषय है। बीते सप्ताह नए साल का जोश अभी ठंडा ही हुआ था कि दिल्ली में हुई एक प्रेस कॉन्फ्रेंस ने राजनीतिक गलियारों और सोशल मीडिया के सूरमाओं को एक बड़े मुद्दे से रूबरू करवाया। यह मुद्दा अवार्ड वापसी,जे.एन. यू ,इन्टॉलरेंस की तरह कोई बुद्धिजीवी और कॉलेज छात्रों के बीच का मामला नहीं था। यह मुद्दा भारत के संविधान और भारतीय नागरिकों के संवैधानिक अधिकार की रक्षा करने वाले सर्वोच्च न्यायलय के उन चार न्यायाधीशों का चिंतन था, जिन्होंने खुद को असहाय बताते हुए जनता के दरबार मे आकर जनता से लोकतंत्र की रक्षा को कहा।न्यायाधीशों का कहना था कि जिस सर्वोच्च न्यायलय की सर्वोच्चता पर भारत के प्रत्येक नागरिक को गर्व है आज उसी की गरिमा खतरे में हैं। उनके अनुसार सर्वोच्च न्यायलय में मुकदमो का निपटारा और बेंच के गठन में एकतरफा प्रक्रियाओं का सहारा लिया जा रहा है जो कि एक चिंता का विषय है।न्यायधीशों का आरोप है कि अब न्यायपालिका में भी आवाज दबाने का खूनी खेल चालू हो गया है। इसी प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक नाम सुनने को आया ब्रिज गोपाल हरि किशन लोया। लोया CBI कोर्ट के जज थे और वह भारत के वर्तमान सबसे शक्तिशाली व्यक्ति के मुकदमे का फैसला करने वाले थे। मुकदमा था सोहराबुद्दीन एनकाउंटर का जिसमे आरोपी थे भाजपा के वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह। जज लोया किसी फैसले पर पहुंचते उससे पहले ही 1 दिसम्बर 2014 को नागपुर में उनकी मौत हो गयी।पोस्टमार्टम के अनुसार जज लोया की मृत्यु हार्ट अटैक पड़ने की वजह से हुई। लेकिन जज लोया की बहन डॉ अनुराधा बियानी के अनुसार जज लोया की मृत्यु संदेहास्पद है। “THE CARVAN” में छपे जज लोया की बहन के इटरव्यू को पढ़ कर लगता है कि जज लोया की हत्या उनकी आवाज दबाने के लिए हुई थी। लेकिन बीते दिनों जज लोया के पुत्र ने ऐसी किसी बात से इनकार करते हुए कहा कि उनको नहीं लगता कि उनके पिता की हत्या हुई थी। यह मामला प्रकाश में आते ही हर जगह बहस छिड़ गई कोई भाजपा को कटघरे में खड़ा करने में लग गया तो कोई भारत के लोतंत्र को I.C.U में बताने लगा। सोशल मीडिया के शूरवीरों में भयंकर उन्माद देखने को मिला। और चार जजों को लेकर राजनीतिक रोटियाँ सेकी जाने लगी। लेकिन फिलहाल चारों मान्यवर अपने अपने कामों पर लौट गए है।परंतु भारतीय इतिहास में ये घटना एक काली छाप छोड़ गई है।देखने वाली बात यह है कि एक जज की रहस्यमयी मृत्यु पर सरकार एक दम मौन है अपितु भारत सरकार को सामने आकर तुरंत इस मामले की जांच के आदेश देकर खुद का दामन बचाना चाहिए लेकिन ऐसा अभी देखने को नहीं मिला है।भारत के इतिहास में यह कोई पहली रहस्यमयी मौत नही है। इससे पहले भी ऐसे कई नेता और अधिकारी लोकतंत्र के इस रहस्यमयी भँवर में गुम हो चुके हैं। जैसा की लोकतंत्र को जनता की आवाज बताया जाता है वहीं दूसरी तरफ इसमें आवाज दबाने के भी कई मामले सामने आए हैं।बीती शाम एक खबर सामने आई कि विश्व हिंदू परिषद के सबसे शक्तिशाली नेता प्रवीण तोगड़िया लापता हैं, कुछ देर बाद प्रवीण तोगड़िया बेहोशी की हालत में मिलते हैं।होश आने पर बताते है कि उनकी जान को खतरा है और लगातार उनकी आवाज दबाने का प्रयास किया जा रहा है। प्रश्न ये उठता है कि प्रवीण तोगड़िया एक कट्टर हिन्दू नेता माने जाते हैं और केंद्र से लेकर जिस राज्य में उनके साथ घटना घटी वहां भाजपा का शासन है तो आखिर कौन है जो उनकी आवाज दबाना चाहता है। यह कोई नई घटना नहीं है इस तरह की कई घटनाएं रहस्य के गर्भ में दफन हैं जिसको पढ़ कर लोकतंत्र के पीछे के खूनी खेल की झलक मिलती है। बात 11 फरवरी 1968 की है,मुगलसराय रेलवे स्टेशन से कुछ दूर रेल पटरी के किनारे एक लावारिश लाश बरामद होती है। घंटो बाद एक कर्मचारी द्वारा शिनाख्त करने पर पता चलता है कि यह लाश जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष पंडित दीन दयाल उपाध्याय की है।पूरा भारत इस बात की सोच में पड़ जाता है कि फर्स्ट क्लास की बोगी में यात्रा करने वाले उपाध्याय आखिर स्टेशन से इतना दूर क्या करने आये थे। पुलिस द्वारा तमाम प्रयास के बाद भी पंडित दीन दयाल उपाध्याय की मृत्यु का आज तक कोई पता नहीं चला। उस समय के उनके सहयोगी रहे नाना जी देशमुख ने आरोप लगाया कि उपाध्याय जी के पास सरकार के भ्रष्टाचार के सबूत थे और उनकी आवाज दबाने के लिए उनकी हत्या कर दी गयी है। लेकिन फिर कुछ दिनों बाद जनसंघ के संस्थापक सदस्य बलराज मधोक ने आरोप लगाया कि पंडित जी की हत्या उन्ही के संगठन के अटल बिहारी,लाल कृष्ण आडवाणी,नाना जी देशमुख द्वारा अपने राजनीतिक फायदे के लिए करवाई गई है। लेकिन मधोक की बातों को लोगों ने सिरे से खारिज कर दिया। और जनसंघ के महान विचारक की मौत का रहस्य राजनीति की अंधेरी गलियों में खो गया।इसी तरह 23 जून 1953 में जनसंघ के नेता और नेहरू के धुरविरोधी डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मृत्यु भी इन्सुलिन की अधिकता के वजह से हुई थी। जिसके लिए जनसंघ के नेताओं ने नेहरू से जाँच की मांग की लेकिन प्रधानमंत्री द्वारा मांग को सिरे से खारिज कर दिया गया। ऐसा एक मामला 1971 में सामने आता है जब नागरवाला घोटाले के आरोपी रुस्तम सोहराब नागरवाला ने उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ जेल से एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करने की बात की और उसी रात उसकी रहस्यमयी मृत्यु हो जाती है जिसका आज तक कोई भी सुराग नही मिला। भारत के इतिहास में भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री,कांग्रेस के चिराग संजय गांधी,सुभाष चंद्र बोस,ललित नारायण मिश्रा,हारें पंड्या,राजीव दिक्षित जैसे कई ऐसे नाम है जिन्होंने अपने पीछे कई सवाल छोड़ दिये,जिसका जवाब आज किसी के पास नहीं है और जिसने कोशिश की तो पर्दे के पीछे की शक्तियों ने हमेशा उसको रोकने का प्रयास किया।सत्ता में कांग्रेस रही हो या भाजपा ये आरोप हर पार्टी पर लगता रहा है कि इस लोकतंत्र में हम तब तक स्वतंत्र हैं जब तक हम गूंगे हैं।और सोचने वाली बात यह है कि क्या देश को लोकतंत्र की हत्या से खतरा है या लोकतंत्र में होती हत्या से।।
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the authorPushpendra Pratap singh
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