Another Khalistan “Saharanpur The Great Chamaar (Dr. Bhimrao Ambedkar Gram) Ghadkauli”
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कहते हैं इतिहास की एक बुरी बात है कि इतिहास खुद को दोहराता है। किसी विद्वान ने कहा है -“जो इतिहास से सीखते नहीं, उनको इतिहास को दोहराने का दण्ड भी मिलता है।” इतिहास के द्वारा निर्मित वर्तमान के परिवेश को देखते हुए आज हमारे देश मे फिर से एक चिंगारी प्रज्ज्वलित होती प्रतीत हो रही है, यह वही चिंगारी है जिसने इतिहास में भारत की सबसे शक्तिशाली महिला को खाक किया था। हम जानते हैं कि 1947 के बटवारे में अगर किसी राज्य को आज़ादी की सबसे ज्यादा कीमत चुकानी पड़ी थी तो वो था पंजाब राज्य। महाराजा रंजीत सिंह ने पंजाब के छोटे छोटे राज्यों को मिला कर एक बड़े प्रांत का निर्माण किया जिसकी राजधानी बना लाहौर,जहां सिख राज्य 50 वर्षोँ तक भली-भांति फला फूला। लेकिन अंग्रेजों ने 1839 में इस राज्य को तोड़ कर फिर से छोटे-छोटे राज्यों में बांट दिया। स्थिति तब भी ठीक थी दुर्दशा हुई 1947 में जब रैडक्लिफ रेखा ने पंजाब राज्य को लगभग चीर डाला, जिसमे बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के हिस्से गया और फिर शुरू हुआ एक विध्वंस जिसमे लाखों सिखों को जान माल हर तरह की हानि उठानी पड़ी, सिख अपने ही राज्य में शरणार्थियों की तरह रहने लगे। सिखों के अंदर एक दुर्भावना पैदा हुई जिसमे वो खुद को शोषित समझने लगे। कभी पानी बटवारे को लेकर और कभी भाषा को आधार बना कर सिखों द्वारा एक राष्ट्रवादी आंदोलन चलाया जाने लगा। उस आंदोलन में एक स्वतंत्र राज्य की मांग उठने लगी।
आंदोलन के नेताओं ने 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग के सामने अलग देश “खालिस्तान” यानी पवित्र भूमि की मांग रखी। जिसको राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा खारिज कर दिया गया, बाद में 1966 में पंजाब को एक अलग राज्य का दर्जा दिया गया। 1970 में रूस की खुफिया एजेंसी के.जी.बी. ने भारत सरकार को इस बात को लेकर सचेत किया कि सिख राष्ट्रवादी आंदोलन के नेता जगजीत सिंह चौहान ब्रिटेन, कनाडा,और अमेरिका में खालिस्तान को लेकर एक बड़ी मुहीम चलाये हुए हैं तथा बड़े पैमाने पर भारत मे बाहरी देशों से पैसा भेजा जा रहा है। उस समय की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस जानकारी को लेकर ज्यादा गंभीरता न दिखाते हुए इस बात को यह सोच कर टाल दिया कि बिना नेता के कोई भी आंदोलन सफल नहीं हो सकता। लेकिन 1971 में न्यूयॉर्क टाइम्स के माध्यम से अमेरिका में खालिस्तान कि आधिकारिक घोषणा के बाद स्थिति पूर्णतया स्पष्ट हो गयी। और देखते देखते एक नाम सामने आने लगा जरनैल सिंह भिंडरवाला। जरनैल सिंह भिंडरवाला काँग्रेस का वो हथियार था जिसको अकाली दल के विपक्ष में काँग्रेस इस्तेमाल करना चाहती थी। लेकिन समय को कुछ और मंजूर था जरनैल सिंह भिंडरवाला ने अपने तेवर तीखे करते हुए खालिस्तान आंदोलन को एक नई दिशा दी जिसमे उसने सिख नौजवानों को यह कह कर भड़काना शुरू किया कि सिखों को भारतीय दोयम दर्जे का नागरिक समझते हैं।
13 अप्रैल 1978 को निरंकारी और अमृतधारी सिखों के संघर्ष में और 24 अप्रैल 1980 को बाबा गुरुचरण सिंह और बाद में डी.आई.जी अवतार सिंह अटवाल की हत्या ने भिंडरवाला को एक अलग कद प्रदान किया। अब राज्य की राजनीति से ऊपर उठ कर देश और विदेशों में बब्बर खालसा संगठन ने अपनी साख मजबूत बनानी शुरू की। और धीरे धीरे इस चिंगारी ने पंजाब राज्य को आतंक की आग में जला कर खाक कर दिया। सिखों को सम्मान देने के लिए इंदिरा गांधी ने ज्ञानी जैल सिंह को 25 जुलाई 1982 में भारत का राष्ट्रपति बनाया। लेकिन इसका कोई भी फर्क पंजाब में पड़ता नही दिखा। 5 अक्टूबर 1983 को उग्रवादियों ने पंजाब के कपूरथला में यात्रियो से भरी बस में हमला कर चुन चुन कर हिंदुओं को मार डाला,और इस तरीके की घटनाओं ने हिंदू और सिखों के बीच एक अलग दीवार खींची जिसका खामियाजा बेकसूर सिखों को भी भुगतना पड़ा। इंदिरा गाँधी सरकार द्वारा पंजाब में राष्ट्रपति शासन लगाया गया। लेकिन 15 दिसंबर 1983 के दिन भिंडरवाला ने अपने साथियों के साथ हरमंदर साहब के अकाल तख्त पर कब्ज़ा कर अपनी स्थिति साफ की। तारीक 1 जून 1984 पंजाब को सेना के हवाले कर दिया गया तथा दो दिन बाद मेजर जनरल कुलदीप सिंह बरार फौज की 9 वीं डिवीजन के साथ स्वर्ण मंदिर में दाखिल हुए। 5 जून 1984 को ऑपरेशन ब्लू स्टार की शरुआत हुई। यह कार्यवाही 7 जून तक चली जिसमे 83 सैनिक शहीद हुए और लगभग 492 से ज्यादा आतंकवादी मारे गए। कहानी अभी खत्म नहीं हुई पंजाब की इस आग को अभी और भी आहुतियां लेनी थी जिसमे एक शामिल थी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की।
31 अक्टूबर 1984 की सुबह प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके आवास पर गोली मारकर हत्या कर दी गयी। यह था इतिहास खलिस्तान का अब वर्तमान की बात करते हैं दलितिस्तान की। समय बदला जगह बदली किरदार बदले लेकिन अंजाम वही होगा ये तो तय है। सितंबर 1977 में जब देश मे पंजाब को लेकर अस्थिरता का माहौल चल रहा था वहीं दिल्ली में दलितों की एक महासभा में 21 साल की लड़की ने दलितों को हरिजन मानने से इनकार किया और मनुवादियों को अपना सबसे बड़ा दुश्मन बताते हुए बाबा साहब के द्वारा निर्मित संविधान में भी असंतोष दिखाया। वह 21 साल की लड़की कोई और नही बल्कि अपने को दलितों का कर्णधार बताने वाली व आगे चलकर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनने वाली मायावती थी। 1977 में मायावती की दलितों के स्वाभिमान के लिए सुलगाई गई चिंगारी को 2016 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर द ग्रेट चमार (डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ग्राम) घडकौली में एडवोकेट चंद्रशेखर आजाद ”रावण” नामक युवक ने हवा देने का काम किया। एडवोकेट चंद्रशेखर आजाद की अगुवाई में इस चिंगारी ने भयानक अग्नि का रूप लिया जिसमे समूचा पश्चिमी उत्तर प्रदेश धूं धूं कर जल उठा। ‘चमार’ शब्द का इस्तेमाल जातिसूचक अपराध माना जाता है और भारत की दंड संहिता के अनुसार इस शब्द का इस्तेमाल करने पर आपको सजा भी हो सकती है, लेकिन घडकौली गांव के दलित इस शब्द पर एतराज नहीं बल्कि फख्र महसूस करते हैं। दलितों के इस आंदोलन ने तत्कालीन केंद्र सरकार को खौफ में डाल दिया। वहीं वोट बैंक खिसकता देख दलितों को खुश करने के लिए एक दलित को भारत का राष्ट्रपति बनाया गया और हरिजन एक्ट में बड़ा संशोधन हुआ, जिससे दलित खुद को मुख्यधारा से भिन्न न समझते हुए अपने को मुख्यधारा में सम्मिलित मानें। लेकिन इसका कोई खास फर्क पड़ता नही दिख रहा अब हर शहर में भीम आर्मी का निर्माण हो रहा है, जो दलितों के स्वाभिमान के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं।
इतिहास से तुलना की जाए तो सिखों के स्वाभिमान के लिए ज्ञानी जैल सिंह को राष्ट्रपति बना कर खुद को दोयमदर्ज़े का महसूस करने वाले सिखों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास किया गया और वहीं वर्तमान में दलितों की खुशी हेतु रामनाथ कोविंद को भारत का राष्ट्रपति बनाया गया। इतिहास में आंदोलनकारी सिखों ने जरनैल सिंह भिंडरवाला के नेतृत्व में बब्बर खालसा संगठन का निर्माण किया और उसने सिखों को स्वाभिमान के लिए हथियार उठाने को प्रेरित किया वहीं दूसरी तरफ वर्तमान में दलित आंदोलनकारियों ने एडवोकेट चंद्रशेखर आजाद “रावण” नामक युवक के अगुवाई में भीम आर्मी बनाई इन्होंने भी दलित युवकों से मोबाइल की जगह कट्टा रखने की वकालत की। इसमें कोई दो राय नहीं कि दलित समाज इतिहास में शोषण के बेड़ियों में जकड़ा रहा है और आज की स्थिति भी संतोषजनक नही है। लेकिन हिंसा और बंदूक के बल पर क्रांति करना इतिहास में भी बेईमानी थी और वर्तमान में भी। इसमें कोई दो राय नहीं कि इतिहास खुद को दोहरा रहा है। और हम जानते हैं जो इतिहास से सीखते नहीं, उनको इतिहास को दोहराने का दण्ड भी मिलता है। अब देखना यह है कि इस दंड का भागीदारी कौन होता है, और इतिहास की चिंगारी से उठे इन अग्नि लपटों में खाक कौन होता है। प्रश्न यह भी है कि क्या घड़कौली सरीखें क्षेत्र कल के खालिस्तान के तर्ज पर बने दलितिस्तान तो नहीं होंगे।