Thursday, July 25, 2024
गोण्डामेरी कलम से

!!आजादी!!

SI News Today

“आजादी” यह कोई मामूली शब्द नहीं हैं।जिस जगह भी इस्तेमाल हुआ वहाँ पर गुलामी का पैमाना बना।मध्य काल में उपयोग हुआ तो धर्म की रुढिवादिता से मांगी आजादी।1857 से 1947 तक अगर किसी के जुबां पर आया तो वो शख्स भारत माँ का सपूत माना गया। हम आज़ाद हुए।अगर पूछूँ कैसे हुए तो बड़े बड़े इतिहासकार सारा इतिहास पलट कर रख देंगे,अपनी बुधिजिविता से सारा दृश्य आपके हमारे मस्तिष्क में पिरो देंगे,आदर करता हूँ उनका।लेकिन अगर पूछूँ कितना आज़ाद हुए हम,तो उत्तर मनभावन नहीं मिलता।साधारण व्यक्ति की हैसियत से मै तो पूरी तरह आज़ाद हूँ अपने संविधान के दायरे में रह कर इस देश में खुली सांस ले सकता हूँ।। लेकिन आखिर क्या घटा उस 9 फ़रवरी 2016 की रात को,की बुद्धिजीवियों का गढ़ कहे जाने वाले विश्वविद्यालय परिसर में मकबूल भट्ट और अफज़ल गुरु जिनको भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्र द्रोही करार कर उनसे इस आज़ाद भारत में जीने का अधिकार छीन कर उनको मृत्युदंड दिया जिसका स्वागत सारे भारत ने किया,उनके विचारों से सहमत और प्रेरित कुछ लोग देश विरोधी नारे लगाते पाए गए।जब उनसे पूछा गया ऐसा क्यूँ किया, क्या कमी है इस देश में तो बोला गया गरीबी से आजादी चाहिए करप्शन बहुत हो गया है,मैं उनसे पूछना चाहता हूँ की क्या अफज़ल और मकबूल को अगर जिंदा छोड़ देते तो क्या आप खुद को आज़ाद मानते या इस भारत की तस्वीर कुछ और होती ? भारत में ये कोई नयी घटना नहीं है इतिहास में झाँक कर देखें तो पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के नक्सल बारी ग्राम पंचायत के बंगई जोत गाँव में 25 मई 1967 को हुई एक घटना से लगी आग दंतेवाड़ा से बक्सर होते हुए JNU और कई विश्विद्यालय परिसर तक आज तक फैली हुई है। आज ये नक्सल आन्दोलन एक पथभ्रस्ट आन्दोलन हो गया है। ताली एक हाथ से नहीं बजती,अगर आज नक्सल और कश्मीर में लगी आग में कुछ गिद्ध गरीबों के भावना रुपी मांस को सेक रहे हैं तो गलती हमारी भी है।।भारत को आज़ाद हुए लगभग 70 साल हुए हैं,लेकिन अभी भी आजादी का मतलब नहीं समझ में आया न कोई समझा पाया।। आखिर क्या ये लोग आज़ाद नहीं जो देश की आजादी को बड़े बड़े मंचों पर जाकर चुनौती देतें हैं,हाफ़िज़ सईद जैसे आतंकवादी के साथ मंच साझा किये हुए अलगाववादी राजनेताओं के लिए विश्व पटल पर चढ़ कर भारतीय संस्कृत को उलझी हुयी और पिछड़ी सभ्यता बताते हैं। पिछले कुछ सालों में विरोध करने के कई तरीके देखने को मिले “अवार्ड वापसी” और “गो इंडिया गो बैक” के रूप में,कई लोगों ने अपने आपको बुद्धिजीवियों की श्रेणी में लाने के लिए इसी बहती गंगा में हाथ धोने का प्रयास भी किया और काफी विरोध भी झेला,क्या ये आज़ाद नहीं हैं। असली आजादी किसको चाहिए ये समाचार टीवी पर बैठ कर अनियंत्रित बिना सुने बोलने वाले राजनेताओं को या विदेशों में अपने परिवार को बसाए हुए बुद्धिजीवियों को,या उन गरीब नक्सल प्रभावित जनता को जिनका शोषण कभी कॉर्पोरेट जगत,कभी नेता और कभी इन्ही के पथभ्रस्ट हिमायतियों द्वारा होता है। जिस आजादी के लिए महंगे शहर के लोग अपने स्कूल कॉलेजों में ढोल मजीरे लेकर अंग्रेजी में आजादी मांग रहे हैं उनको आभास भी है की आखिर कौन सा काल्पनिक देश वो चाहते हैं,या फिर सस्ती लोकप्रियता पाने का कोई आसान सा रास्ता उनके द्वारा बनाया जा रहा है। आजादी चाहिए गरीबी से भ्रष्टाचार से अपराध से और अपने को संविधान से बढ़ कर बताने वाले नौकरशाहों से,लेकिन हमारा आदर्श कोई अफज़ल और बुरहान नहीं होना चाहिए।।कुछ कमियाँ हैं तो बहुत अच्छाइयां भी हैं हमारे इस देश में बस हमारे भीतर बैठे चन्द गद्दारों की पहचान हो जाये??

SI News Today
Pushpendra Pratap singh

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